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पनुन संकल्प, प्रातिकूल्य का विसर्जन, संरमण, एतब विश्वास, मोतृत्व
म में वरण, भात्म निक्षेप पौर कायनान" प्रति माग से प्रेरित होकर मक के मन में माराध्य के प्रति श्रद्धा और प्रेम भावना का पतिरेक होता है। बामवराम अपने मंगों की सार्थकता को तभी, स्वीकार करते हैं कि वे भाराभ्य को मोर के रहें
रे जिय जनम लाहो लेह । परन से जिन भवन पहचे, दान में सर पेह। सरसोई जा में क्या है, कीर को बेह। जीभ सो बिन नाम गाये, सांच सौ करे नेह ॥ ; मांस जिमराण देखें और पांच ह। ।
श्रवन ते जिन वचन सुनि शुभ तप तपै सो देह ॥ कविवर थानतराय में प्रपत्ति की लगभग सभी विशेषतायें मिलती है। भक्त कवि ने अपने पाराध्य का गुण कीर्तन करके अपनी भक्ति प्रकट की है। वह माराध्य में मसीम गुरखों को देखता है पर उन्हें अभिव्यक्त करने में समर्थ होने के कारण कह उठता है
प्रभु मैं किहि विषि थुति करौं तेरी। गणधर कहत पार नहिं पाये, कहा दुधि है मेरी ॥ शक्र जनम भरि सहस जीम परि तुम जस होत न पूरा । एक जीभ कैसे गुण गावे उसू कहे किमि सरा॥ पमर छत्र सिंहासन बरनों, ये मुस तुम ते न्यारे।
तुम गुण कहन वचन बल नाहिं, नैन-सिनै किमि तारे कवि को पाश्र्वनाथ दुःखहर्ता और सुखकर्ता दिखाई देते है। उन्हें विघ्नविनाशक, निर्धनों के लिए द्रव्यदाता, पुत्रहीनों को पुनशता और हासको के निवारक बताते हैं। कवि की भक्ति से भरा पावनाय की महिमा काम इन्टव्य है
दुखी दुःखहर्ता सुखी सुक्खकर्ता। सवा सेवकों को महानन्द भर्ता ।
भानुकूलस्य संकल्पः प्रातिकूलस्व वर्षवम् ।। रक्षिष्यतीति विश्वासो, गोप्तृत्व वरणं तया । मात्मनिपकाये पविषा गरमापतिः ।। पानसपद संग्रह, पृ.4, कलकत्ता बानत पर संग्रह. पृ.45
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