Book Title: Jain Sanskrutik Chetna
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Sanmati Vidyapith Nagpur

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Page 45
________________ 38 हरे यक्ष राक्षस भूतं पिशाचं । विष डोfeat far के भय भवाचं ॥ दरिद्रीन को द्रव्य के दान दाने ॥ मीन को तू मले पुत्र कीने ॥ महासंकटों से निकारं विधाता । सर्व संपदा सर्व को देहि दासा ॥12 नामस्मरण प्रपत्ति का एक अन्यतम भंग है जिसके माध्यम से भक्त अपने इष्ट के गुणों का अनुकरण करना चाहता है। थानतराय प्रभु के नामस्मरण के लिए मन को सचेत करते हैं जो ममजाल को नष्ट करने में कारण होता है 1. 2. 3. रे मन भुज भज दोनदयाल || जाके नाम लेत इक खिन मे, कर्ट कोटि मजाल || पार ब्रह्म परमेश्वर स्वामी, देखत होत निकाल || सुमरन करत परम सुख पावत, सेवत भार्ज काल || इन्द्र फणिन्द्र चक्रभर गावं, जाको नाम रसाल । जाके नाम ज्ञान प्रकासं, नाी मिध्याजाल । सोई नाम जपो नित बानत, छाडि विषै विकराल || 2 प्रभु का नामस्मरण भक्त तब तक करता रहता है, जब तक वह तन्मय नहीं हो जाता । जैनाचायों ने स्मरण और ध्यान को पर्यायवाची कहा है । स्मरण पहले तो रुक-रुक कर चलता है, फिर शनैः-शनैः एकांतता प्राती जाती है मौर बहू या का रूप धारण कर लेता हूँ । स्मरण में जितनी अधिक तल्लीनता बड़ी जायेगी वह उतना ही तप होता जायेगा । इससे सांसारिक विभूवियों की प्रति होती आवश्यक है किन्तु हिन्दी के छैन कवियों ने माध्यात्मिक सुख के लिए ही बल दिया है। विशेषरूप से ध्यानवाची स्मरण जैन कवियों की विशेषता है । यानतराम प्ररहन्तदेव का स्मरण करने के लिए प्रेरित करते हैं । ये स्थातिलाभ पूजादि छोड़कर प्रभु के निकट्तर पहुंचना चाहते हैं मरहंत सुमरि मन बावरे ॥ क्याति लाभ पूजा तजि भाई । अन्तर प्रभु लौ जाब रे 118 सहजनवाणी संग्रह, कलकत्ता से प्रकाशित हिन्दी पद संग्रह, पू. 125-26 वही, पृ. 139

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