Book Title: Jain Sanskrutik Chetna
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Sanmati Vidyapith Nagpur

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Page 49
________________ पोर खबरत होकर परमात्मा के रंग में रंग जाने के लिए होली खेली। संत कति कबीर मावि अपनो सुनरियों को साहब से रगवाते रहे और उसे मोड़कर परम्पत्या के रंग में समरस हो गये। ये निर्गुणिया संत माध्यामिकता, परसबाय पौर पवित्रता की सीमा मे घिरे हैं। उनकी साधना में विचार और प्रेस का सुल्कर सबम्बय हमा है तथा ब्रह्म जिज्ञासा से वह अनुप्राशित है। कवि चानतराय ने भी इसी परम्परा का प्रबलम्बन लिया है । निर्गुण और सगुण दोनों परम्पराओं को बम्होंने स्वीकारा है। समूचा हिन्दी जैम साहित्य शान्ता भक्ति से परिपूरित है उसका हर कवि एक मोर परमात्मा का भक्त है तो दूसरी मोर प्रात्मकल्याण करने के लिए तत्पर भी दिखाई देता है , इस दौर मे वे अपनी पूर्व परम्परा का अनुकरण करते हुए संतो की श्रेणी मे बैठ जाते हैं कविवर थानतराय एक उच्च कोटि के साधक भक्त कवि थे। उनका साहित्य सत कधियो की विचारधारा से मेल खाता है। यह बात अवश्य है कि पानतराय के साहित्य मे जनदर्शन के तस्व धुले हुए हैं जबकि सन्त अपरोक्षरूप से उन तत्त्वो को स्वीकारते हुए नजर पाते हैं । द्यानतराय, योगीन्दु, मुनि रामसिंह बनारसीदास, प्रानन्दधन, भैया भगवतीदास प्रादि जैसे जैन कवियों की परम्परा लिए हैं। सन्त कवि भी परम्परा से प्रभावित रहे हैं। इस प्रकार जैन और गैनेतर सन्त अपने-अपने दर्शनो की बात करते हुए प्रथक्-प्रथक् दिखाई देते हैं। परन्तु सततः उनकी विचारधारा के मूल तत्त्व उतने भिन्न नही । यानतराय जैसे जैन कवि ने ऐसी ही परम्परा मे घुल-मिलकर अपनी प्रतिज्ञा और साहित्य से सन्त साहित्य को प्रशसनीय योगदान दिया है। पाश्चर्य की बात है कि ऐसे प्रतिभा सम्पन्न कवि का उल्लेख मात्र इसलिए मही किया गया कि वह न था । अन्यथा माज उसे अन्य नेतर कवियों जैसा स्थान मिल गया होता । रीतिकाल के भोग-विलास मौर शृंगार भरे वातावरण में अपनी कलम को अध्यात्मनिरूपण मोर महेतुका भक्ति की मोर मोड़मा साधारण प्रतिभा का कार्य नहीं था। भौतिकता की चकाचौंध मे व्यक्ति भन्धा हो गया था से सुमार्ग पर लाने के लिए उन्होने ससार की प्रसारता सिख करते हुए संसारी सीव को अपना कल्याण करने के लिए प्रेरित किया। उनका साहित्य भवसागर औपार उतरने के लिए प्रेरणा स्रोत है । सन्तों ने भी दूषित बाल क्रियाकारों के विरुद्ध भावाज उठाकर ससारी जीव को मारमकल्याण करने की सीख दी थी। इस प्रकार दोनों की वैचारिक विशेषतायें परम्परा से मेल खाती हैं। मतः हिन्दी साहित्य में पानतराय गैसे जैन कवियो के योगदान का यथोचित मूल्यांकन करना नितान्त मावश्यक है। इसके बिना हिन्दी साहित्य का इतिहास मधूरा ही कहलायेगा। 1. कबीर, पृ. 352-3, धर्मदास, सन्तवाणी संग्रह, भाग 2, पृ. 39, गुलाब साहब की मानी, पृ. 22.

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