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परिवर्त 3
जैन दार्शनिक चेतना
1. स्याद्वाद और अनेकान्तवाद
स्याद्वाद और प्रनेकान्तवाद निर्दोष कथन और चितन का एक प्रशस्त मार्ग है। वह अपने दुराग्रह से मुक्ति धौर दूसरे के विचारों की सादर स्वीकृति है । सूत्रकृतान जैसे प्राचीन बंग साहित्य में इसका विवेचन मिलना इस बात का चीक है कि स्याद्वाद का चिंतन जैनदर्शन में लगभग महावीरकालीन है। बौद्धधर्म का पालि साहित्य भी इस बात का समर्थन करता है ।
सूत्रकृताङ्ग मे भिक्षु के लिए विभज्जवादमयी भाषा का प्रयोग निर्दिष्ट है । विवाद का तात्पर्य है, सम्यक् अर्थो को विभक्त करने के बाद उसे व्यक्त करना । भाषा समिति के सन्दर्भ मे भिक्षु के लिए उपदिष्ट यह निर्देशन पत्यन्त महत्व - पूर्ण है
संकेज याsifhaभाव सिक्लू, विभज्जवायं च विवागरेज्जा । भासा धम्मसमुट्ठितेहि, बियागरेज्जा समया सुपन्ने ||
.... विभव्यबाद - पृबगर्थनिर्णयबाद ज्यामुसीवाद दिया विषयबाद: स्वाद्वावस्तं सर्वत्रास्त्रलितं लोकव्यवहाराविसंवादितयासर्वव्यापिनं स्वानुभवसिद्ध ववेद, अथवा सम्यगर्थान् विभ्रम्य पृथक्कृत्वा तद्वाद वदेत्, तथा निस्ववाद पार्वता पर्यायार्यतया त्वनित्यवाद वदेद् तथा स्वद्रव्य क्षेत्रकालचार्यः सर्वेऽपि पदार्थाः सन्ति, परद्रव्यादिभिस्तु न सन्ति तथा चोक्तम्- "सर्वच सर्व को स्वादिचतुष्टयात् ? असदेव विपर्यासवेन व्यवतिष्ठते ।"
wer बुद्ध भी प्रपने ग्राप की विभज्यवादी मान रहे है, नहीं। वहां महावीर के विभज्यवाद और बुद्ध के विवाद में कुछ है। सभी अपना दृष्टि कोसों को पवित्रूप से सत्य स्वीकार करता है बुद्ध का विजयवाद प्रत्रिम स्पष्टीकरण किये बिना उसे सही नहीं माना। व्यापक है और दूसरा सीमित ।