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सर्वान्तवत् तद्गुणमुख्य कल्पम् सर्वान्तशून्यं च जियोनपैक्षम् । सामन्तकरं निरभ्वं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥
पाच जैन साहित्य पर आक्षेप किया जाता है कि वह साम्प्रदायिक साहित्य है । इस मीट में उसका मूल्यांकन करने कोई तैयार नहीं होता, यह बड़े दुःख व माश्वयं की बात है । सच तो यह है कि इस साम्प्रदायिक दृष्टि के व्यामोह में विद्वानों मौर राजनीतिकों ने जैन साहित्य को फूटी भांखों से भी नही देखा । यदि वे जैन साहित्य की साम्प्रदायिक साहित्य कहना चाहते हैं तो वेद से लेकर कालिदास, भारवि, श्रीहर्ष, शंकराचार्य मादि महाकवियों के साहित्य को असाम्प्रदायिक की श्रेणी में कैसे खड़ा किया जा सकता है ? प्राश्चर्य है, भारत के किसी भी विश्व विद्यालय की किसी भी प्राक्य भारतीय विद्या की परीक्षा में जैन साहित्य को कोई विशेष स्थान प्राप्त नहीं । इसका फल यह हुआ है कि विद्वान और छात्रगरण उस मोर दृष्टिपात ही नही करते । हर व्यक्ति किसी धर्म और सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्धित होता ही है । तब निश्चित ही उसकी विचारधारा का प्रतिबिम्व उसके साहित्य पर पड़ेगा। इसलिए साम्प्रदायिक मौर साम्प्रदायिक जैसे शब्दों के बीच की भेदक रेखा स्पष्ट होनी चाहिए अन्यथा प्राचीन भारतीय सस्कृति के अनेक बहुमूल्य तत्व न जाने कब तक प्रच्छन्न रहेंगे । साहित्य के क्षेत्र मे विचारक की दृष्टि विशुद्ध और निष्पक्ष होनी चाहिए तभी उसका सही मूल्यांकन सम्भव है ।
जैनाचायों मे प्राकृत को विचारों की प्रभिव्यक्ति का माध्यम बनाया । बादमे लगभग सभी प्रादेशिक भाषाओं को भी उसी रूप में अपनाया गया इन सभी भाषाथों का प्राय साहित्य प्रायः जैनाचायों से प्रारम्भ होता है ।
प्राच्य भारतीय साहित्य में जन वाङ भय का नाम उस दिन स्वर्णाक्षरों में लिखा जायेगा जिस दिन उसका सम्पूर्ण साहित्य प्रकाश में था जायेगा । साहित्य की ऐसी कोई विधा नहीं जिसमें जैनाचार्यों ने कलम न चलायी हो । प्राचीन भारतीय भाषाओं मे ऐसी कोई भाषा भी नही, जिसे उन्होंने न अपनाया हो । लोकभाषा मौर साहित्यिक भाषा दोनो पर उन्होने समान अधिकार पाया और प्रागम, काव्य, न्याय व्याकरण, छन्द, कोष, अलंकार, आयुर्वेद, ज्योतिष, राजनीति, fures प्रादि सभी विषयों पर संस्कृत प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, मराठी, गुजराती, बगला, उड़िया श्रादि भाषाओं तथा राजस्थानी, बुंदेलखंडी, ब्रज आदि जैसी बोलियों में भरपूर साहित्य सर्जना की। इसके साथ are भाषाम्रों-तमिल, तेलगू, कन्नड़ और मलयालम में भी उसी कोटि का साहित्यिक कार्य जैनाचायों ने किया ।