Book Title: Jain Sanskrutik Chetna
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Sanmati Vidyapith Nagpur

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Page 36
________________ अन्य भाषा साहित्य प्रवृत्ति तमिस भाषा के पांच माध महाकाय माने भासे है-चिप्पदिकारम, बसयापनि, चिन्तामरिण, कुण्डलकेशि मोर मरिण मेखले। इनमें प्रथम सीन निविवाद रूप से गैस महाकाव्य है । इनके अतिरिक्त पांच लघुकाम्य भी नामों की कृतियाँ है-नीलकेशि चूड़ामरिण, यशोषरकाक्यिम, नागकुमार कावियम्, तथा उदयपानक थे। कुरल काव्य को तो कुन्दकुन्दाचार्य की कृति मानी जाती है। अन्य तमिल काव्य विधायें भी जैनाचार्यों ने समृद्ध की हैं। कन्नड़ साहित्य तो जैनों से प्रोतप्रोत रहा है कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, पूज्यवाद, अकलंक, विद्यानन्दि, सोमदेव जैसे प्रधान जैनाचार्य कर्नाटक की ही देन है । महाकवि पम्प, पोन्न, रत्न, चामुण्डराय, मागचन्द्र, सोमनाथ, मुणवर्मा, महाबल प्रादि जैन धर्म के ही अनुयायी थे जिन्होंने कन्नड साहित्य की विषिष विधानों मे साहित्य सृजन किया है तत्वतः कन्नड़ का पचहत्तर प्रतिशत साहित्य गैन साहित्य है जो कर्नाटक में जैन धर्म की लोकप्रियता का उदाहरण माना जा सकता है। इसी तरह मराठी साहित्य के भी प्राध लेखक गैन रहे हैं। पर प्रषिक मराठी जैन साहित्य 17 वी शती से प्रारम्भ होता है। गुजरात तो प्रारम्भ से जैनधर्म का प्राश्रयदाता रहा है। उसका साहित्य 12 वी शती से प्रारम्भ होता है जिसके प्रवर्तक जैनाचार्य ही थे। रासो, फागु, बारहमासा, विवाहलु प्रादि काव्य प्रवृत्तियों के जन्मदाता जैन ही थे। शालिमा सूरि, (1185 ई.) का भरतेश्वर बाहुबलि रास प्रथम प्राप्य मुजराती कृति है। विनयप्रम, राजशेखर सूरि जैसे प्रमुख गुजराती कवि उल्लेखनीय हैं। हिन्दी का भी प्राविकाल जैनाचार्यों से ही प्रारम्भ होता है। जिनदत सूरि का चचरी, उपदेश आसिग का जीवदयारास, जिनपदम की सिरिथूलिभह फानुपादि ऐसी ही जैन कृतियां है। मध्यकाल मे सहस्राधिक प्रबन्ध काम्य रूपक काव्य, मध्यात्म और भक्ति मूलक काव्य, गीति काव्य और प्रकीर्णक काव्य लिखे गये हैं। ब्रह्मणिनदास बनारसीदास, धानतराय' कुशल लाभ, रायमल्ल, जयसागर, भैयाममवतीदास मादि जैसे शीर्षस्थ कहाकवि मध्यकाल की देन है। इन सभी पर हम अपने "हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्ति" तथा 'मध्यकालीन हिन्दी म कान्य में रहस्यभावना' प्रयों में विचार कर चुके हैं। यहां कविवर बम पयसागर तथा पामतराप पर विशेष ध्यान मास्ट

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