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सके । इसका दण्ड उन्हें यह मिला कि पाश्रम से निकल जाना पड़ा। उस समय की उनकी मानसिक स्थिति का अवलोकन कीजिए जो जैनधर्म किंवा मानवता का भभिन्न मन है।
चण्डकौशिक नाग को महावीर ने प्रतिबोध दिया, यह सही हो सकता है, उसके काटने पर महावीर को कोई भसर न हमा हो यह भी सही हो सकता है पर उसके उसने पर महावीर के पर से रक्त के स्थान पर दूध की धारा बह निकले यह सही नहीं लगता । यह तो वस्तुतः उत्तरकालीन चमत्कार का नियोजन प्रतीत होता है।
साधना के दूसरे वर्ष में गोशालक की भेंट महावीर से हुई और वह छठवेंवर्ष तक महावीर के साथ मे रहा भी। इस बीच गोशालक की अनेक घटनामों का उल्लेख है जिनमे उसके व्यक्तित्व को बिल्कुल नीचा पोर उपद्रवी दिखाया गया है। वस्तुतः गोशालक की श्रेष्ठता दिखाना स्वाभाविक है। बौवागमो ने भी ऐसा ही किया है।
कठपूतना और मालार्य व्यन्तरियां तथा सममदेव के धनघोर उपसगों को साधक महावीर ने शान्ति पूर्वक सहन किया। अन्तिम उपसर्ग छम्माणि ग्राम मे हुमा जहाँ ग्वाले ने उनके कानो में कीले ठोके । इससे भी कही अधिक दुःखदायक उपसर्ग उस समय हमा जबकि सिद्धार्थ नामक वणिक ने अपने मित्र खरक नामक वैब से उन कीलों को निकलवाया।
पालि साहित्य के मरिझम निकाय (चूल दुक्खक्खन्ध-सुत्त) तथा संयुसनिकाय (सखसुत्त) मे भी वर्षमान की तपो साधना का वर्णन है। परन्तु वहां निमण्ड नातपुस न होकर 'निग्गण्ठा' लिखा हुमा है जिसका साधा सादा अर्थ है जैन मुनि । अभयराज कुमार, मसिबन्धकपुस गामणी, उपालि मादि धारकों के पर्चा-प्रसमों में भी वर्धमान के स्वय के तप का रूप स्पष्ट नहीं होता बल्कि उनके सिवान्तों पर किञ्चित् प्रकाश पड़ता है । ये सभी उल्लेख उस समय के होंगे जबकि भगवान महावीर केवलज्ञान प्राप्त कर चुके थे और उन्होने अपने धर्म का प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया था।
भगवान् महावीर की देशना को दिव्यध्वनि कहा गया है। इस दिव्यध्वनि
1. इमेण तेरण पंच प्रभिन्महा गहिया (मा. मलय नि. पन 268 (1)।
इमेय तेण पंच अभिग्गहा वाहिता (पावश्यक पू. पृ. 271) नाप्रीतिमद् गृहे वास. स्येयं प्रति मया सह । न हि विनयं कार्यो, मौनं पाणी च भोजनम् ॥ (कल्पसूत्र, सुबोषा-पृ. 288)।