Book Title: Jain Sanskrutik Chetna
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Sanmati Vidyapith Nagpur

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Page 27
________________ पर ऐसे विषय निश्चित ही काफी उत्तर कालीन रहे होंगे । क्योंकि जैन धर्म की भूल भावना से इसका कोई मेल नहीं खाता । ऐसे पाठ प्रक्षिप्त ही होना चाहिए । . सूत्रकृताङ्ग (सूयगडाङ्ग) प्राकृत जन प्रागम का द्वितीय अंग प्रन्थ है जिसे सुदयर, सूदयह, सूदयद, सूतगड, सूयगड और सुसगड जैसे प्रभिधान प्राकृत में उपलब्ध होते हैं। परन्तु संस्कृत में यह आगम ग्रन्थ सूत्रकृत नाम से ही अधिक प्रसिद्ध है। सुप, सूद अथवा सुत्त शब्द पालि के सुत्त शब्द से मिलता जुलता लगता है जिसे हम श्रुत, सूक्त प्रथवा सूत्र पर्थ में व्याख्यायित कर सकते हैं। कि जैन पौर बौद्ध भागमों की प्रारंभिक परम्परा श्रुति परम्परा रही है और जहाँ कहीं सूत्र शैली का भी प्रयोग हुपा है । इसलिए सूयगडाङ्ग का सूय शब्द उपयुक्त प्रर्थों में प्रयुक्त हुमा प्रतीत होता है। ___ सूत्रकृताङ्ग विषय सामग्री की दृष्टि से एक प्राकर ग्रन्थ है । समवायाङ्ग के मनुसार इसमें स्वसमय, परसमय प्रोर नव पदार्थों का वर्णन है। नंदीसूत्र के अनुसार इसमे लोक, प्रलोक, लोकालोक, जीव, प्रजीव, स्वसमय और परसमय का निरूपरण है। तथा क्रियावादी प्रादि 363 मिथ्यादृष्टियों के मतो का खडन किया गया है। वह दो श्रुत स्कन्धो, 23 अध्ययनो, 33 उद्देशन कालो मोर 36 समुद्देशन कालों में विभक्त है। इसका कुल पद परिमारण 36 हजार है । राजवार्तिक के अनुसार इसमें शान, विनय, कल्प तथा प्रकल्प छेदोपस्थापना, व्यवहार धर्म एवं क्रियानो का वर्णन है । कषाय पाहर में भी लगभग इसी तरह की विषय सामग्री का उल्लेख है। जय धवला में इन विषयों के साथ ही स्त्रीपरिणाम की भी चर्चा का उल्लेख मिलता है। इन सभी ग्रन्थों में सूत्रकृताङ्ग की उल्लिखित विषय सामग्री को एकत्रित किया जाय तो वर्तमान सूत्रकृताङ्ग का स्वरूप उपस्थित हो जाता है इसमें 32 अध्ययन हैं। 1. समय, 2. वतालीय, 3. उपसर्ग, 4. स्त्री परिणाम, 5. नरक, 7. वीर स्तुति, 7. कुशीलपरिभाषा, 8. वीर्य, 9. धर्म, 10. प्रन, 11. मार्ग, 12. समवसरण, 1. सूयगडेणं ससमया सूरजति परसमया सूइज्जति समय परसमया सूइजति समवायो-पउण्णम समयामो, सू. 90. 2, नन्वीसूत्र, सूत्र-82. प्रतिक्रमण अथवयी, प्रमाचंद्रीय वृत्ति

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