Book Title: Jain Sanskrutik Chetna
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Sanmati Vidyapith Nagpur

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Page 30
________________ 23 दृष्टिवाद बारहवां अंग है । यह एक विणास कायिक ग्रन्थ था जो लुप्त हो गया है । तत्वाचं बार्तिक और मन्दिसूत्र के अनुसार इसके पांच मेव हैं- परिका, सूत्र, अनुयोग, पूर्वगत और चूलिका । पूर्वो के चौवह क्षेत्र हैं जिनका पीछे करका किया जा चुका है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार पूर्वी का देवज्ञान भारत की प्रा. मौर परसेन से पुष्पदन्त व भूतकलि ने पाया जिन्होंने षट्सपागम की रमना की। पर श्वेताम्वर परम्परा में महाबीर के निर्वाण के एक हजार वर्ष बाद पूहो का पूर्णतः लोप मान लिया गया है। शेष प्रागम अंग बाह्य है जो स्थविर कृत हैं। अंग बाह्म के दो भेद हैप्रावश्यक और मावश्यक व्यतिरिक्त । मावश्यक 6 है-सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याश्यान । मावश्यक व्यतिरिक्त कालिक और उत्कालिक के भेद से दो है। उत्तराध्ययन, निशीथ प्रादि कालिक पन्तर्गत्र हैं और दशवकालिक, प्रज्ञापना भादि उत्कालिक मे पाते हैं । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संप्रदाय उपलब्ध भागमों में कुछ नियुक्तियों को बोड़ कर 45 अथवा 84 पागम मानता है। 45 मागमों की सूची इस प्रकार हैअंग 11- प्राचार, सूत्रकृत. स्थान, समवाय, व्याश्याप्रज्ञप्ति (भगवती), ज्ञातृ धर्मकया, उपासक दशा, पन्तकृत, दशा, अनुतरोपपादिक दशा, प्रश्न व्याकरण और विपाक । उपांग 12- औषपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिमम, प्रज्ञापमा, अलीप प्राप्ति चन्द्रप्रज्ञप्ति, निरयावलिया, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुपचूमिका वृष्णिदशा। मावश्यक, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, नन्दी, अनुमोमबार, पिण्डनियुक्ति, प्रोधनियुक्ति छेद सूत्र 6-- निशीथ, महानिशीथ, वृहत्कल्प, व्यवहार दशा, पतस्मात्य, पचकल्प प्रकीर्णक 10- पातुर प्रत्याख्यान, भक्तपरिशा, तन्दुल वैचारिक, चन्द्रवेध्यक, देवेन्द्रस्तव, गणिविद्या, महाप्रत्याख्यान, चतुःशरस, वीरस्तन, संस्तारक 84 आगमों की संख्या पूर्वोक्त 45 मागमों के अतिरिक्त निम्न प्रकार है 46. कल्पसूत्र (पयुषण कल्प, जिनभरित, स्थविरावलि, समाचारी), 47. यतिजीत कल्प (सोमप्रभसूरि), 48. श्रद्धाजीत कल्प (धर्म घोष सूरि), 49. पाक्षिक सूत्र, 50. क्षमापना सूत्र, 51. बंदिस्तु, 51. ऋषिभाषित, 5. जीवकल्प, 54. गछाचार. 55. मरण समाधि, 56. सिद्धप्रामृत, 57. 'तीयोगार, 58. माराधना मूलसूत्र 6

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