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भ० महावीर और उनका समय
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दया-दम-त्याग-समाधिनिष्ठं नय-प्रमाण-प्रकृतांजसार्थम् । अधृष्यमन्यैरखिलैः प्रवादैर्जिन त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥६॥
–युक्त्यनुशासन इस वाक्यमें 'दया' को सबसे पहला स्थान दिया गया है और वह ठीक ही : है। जब तक दया अथवा अहिंसाकी भावना नहीं तब तक संयममें प्रवृत्ति नहीं होती, जब तक संयममें प्रवृत्ति नहीं तब तक त्याग नहीं बनता और जब तक त्याग नहीं तब तक समाधि नहीं बनती। पूर्व पूर्व धर्म उत्तरोतर धर्मका निमित्त कारण है । इसलिये धर्ममें दयाको पहला स्थान प्राप्त है । और इसीसे 'धर्मस्य मूलं दया' आदि वाक्योंके द्वारा दयाको धर्मका मूल कहा गया है। अहिंसाको 'परम धर्म' कहनेकी भी यही वजह है । और उसे परम धर्म ही नहीं किन्तु 'परम ब्रह्म' भी कहा गया है; जैसा कि स्वामी समन्तभद्रके निम्न वाक्यसे प्रकट है-- "अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं ।"
--स्वयम्भूस्तोत्र और इसलिये जो परमब्रह्मकी आराधना करना चाहता है उसे अहिंसाकी उपासना करनी चाहिये-राग-द्वेषकी निवृत्ति, दया, परोपकार अथवा लोकमेवाके कामोंमें लगना चाहिये । मनुष्योंमे जब तक हिसकवृत्ति बनी रहती है तब तक प्रात्मगुणोंका घात होनेके साथ साथ "पापाः सर्वत्र शंकिताः" की नीतिके अनुसार उसमें भयका या प्रतिहिंसाकी आशंकाका सद्भाव बना रहता है। जहाँ भयका सद्भाव वहाँ वीरत्व नहीं-सम्यक्त्व नहीं * और जहाँ वीरत्व नहींसम्यक्त्व नहीं वहाँ आत्मोद्धारका नाम नहीं। अथवा यों कहिये कि भयमें मंकोच होता है और संकोव विकासको रोकनेवाला है। इसलिये आत्मोद्धार
* इसीसे सम्यग्दृष्टिको सस प्रकारके भयोंसे रहित बतलाया है और भयको मिथ्यात्वका चिह्न तथा स्वानुभवकी क्षतिका परिणाम सूचित किया हैं। यथा
"नापि स्पृष्टो सुदृष्टियः स सप्तभिर्भयर्मनाक् ॥" "ततो भीत्यानुमेयोऽस्ति मिथ्याभावो जिनागमात् । सा च भीतिरवश्यं स्यादेतोः स्वानुभवक्षतेः ॥” -पंचाध्यायी