Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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औपपातिक इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, दूत और सन्धिरक्षकों के साथ बाहर की उपस्थानशाला ( दरबार आम) में आकर हाथी पर सवार हुआ। सबसे आगे आठ मंगल द्रव्य', फिर पूर्ण कलश, छत्र, पताका और चामर सहित वैजयन्ती सजाये गये। तत्पश्चात् दण्ड, छत्र, सिंहासन, पादपीठ और पादुका वहन करने वाले अनेक किंकर और कर्मकर खड़े हुए। इनके पीछे लाठी, भाला, धनुष, चामर, पाश (फाँसी), पुस्तक, फलक ( ढाल), आसन, वीणा, कुतुप (तैलपात्र) और पानदान ( हडफ) वहन करने वाले खड़े हुए। उनके पीछे अनेक दण्डी, मुण्डी, शिखण्डी (शिखाधारी), जटी (जटावाले), पिंछीवाले, विदूषक, चाटुकार, भांड आदि हसते-बोलते और नाचते-गाते तथा जय-जयकार करते थे। तत्पश्चात् घोड़े, हाथी और रथ थे और इनके पीछे असि, शक्ति (सांग), भाला, तोमर, शूल, लकुट, भिंडिपाल ( लम्बा भाला) और धनुष से सज्जित पदाति खड़े थे। कुणिक राजा का वक्षस्थल हार से, मुख कुण्डल से और मस्तक मुकुट से शोभायमान था। उसके सिर पर छत्र शोभित था और चामर डुल रहे थे। इस प्रकार बड़े ठाठ-बाठ से कूणिक ने हाथी पर सवार होकर पूर्णभद्र
चैत्य की ओर प्रस्थान किया। उसके आगे बड़े घोड़े और घुड़सवार, दोनों ओर हाथी और हाथी सवार तथा पीछे-पीछे रथ चल रहे थे। शंख, पणव ( छोटा ढोल ), पटह, भेरी, झल्लरी, खरमुही ( झांझ), हुडुक्का, मुरज, मृदंग और दुंदुभि के नाद से आकाश गुंजित हो उठा था (३१)।
जब राजा कूणिक हाथी पर सवार हो नगर में से गुजरा तो मार्ग में अनेक द्रव्यार्थी, कामार्थी, भोगार्थी, भांड, कारोडिक (ताम्बूलवाहक-टीका), लाभार्थी, राजकर से पीड़ित, शंखवादक, कुम्भकार, तेली, कृषक (गंगलिया), चाटुकार, भाट तथा छात्र ( खण्डियगण) आदि प्रिय और मनोज्ञ वचनों द्वारा राजा को बधाई दे रहे थे-आप दुर्जयों को जीतें, जीते हुओं का पालन करें, परम आयुष्मान हों, समस्त राज्य की सुखपूर्वक रक्षा करें और विपुल भोगों का उपभोग करते हुए काल यापन करें। इस प्रकार अनेक नर-नारियों से स्तुति
१. स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्यावर्त, वर्धमानक (शराव, पुरुषारूढपुरुष इस्यन्ये,
स्वस्तिकपंचकमित्यन्ये, प्रासादविशेष इत्यन्ये), भद्रासन, कलश, मल्स्य
और दर्पण । मथुरा की कला में आठ मांगलिक चिह्न अंकित हैं। २. गलकावलंबितसुवर्णादिमयहलधारिणो भट्टविशेषाः-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका.
पृ० १४२.
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