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जैनधर्म और तान्त्रिक साधना
तथा तथा प्रवर्तेत यथा न क्षुभ्यते मनः । संक्षुब्धे चित्तरत्ने तु सिद्धि व कदाचन।।
(प्रज्ञोपायविनिश्चय ५/४०) जब तक चित्त में कामभोगोपलिप्सा है, तब तक चित्त में क्षोभ का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि न केवल हिन्दू तांत्रिक साधनाओं में अपितु बौद्ध तांत्रिक साधना में भी किसी न किसी रूप में भोगवादी जीवन दृष्टि का समर्थन हुआ है। यद्यपि परवर्तीकाल में विकसित बौद्धों की यह भोगमूलक जीवनदृष्टि भारत में उनके अस्तित्व को ही समाप्त कर देने का कारण बनी। क्योंकि इस भोगमूलक जीवनदृष्टि को अपना लेने पर बौद्ध
और हिन्दू परम्परा कां अन्तर समाप्त हो गया। दूसरे इसके परिणाम स्वरूप बौद्ध भिक्षुओं में भी एक चारित्रिक पतन आया। फलतः उनके प्रति जन-साधारण की आस्था समाप्त हो गयी और बौद्ध धर्म की अपनी कोई विशिष्टता नहीं बची, फलतः वह अपनी जन्मभूमि से ही समाप्त हो गया।
जैनधर्म में तन्त्र की भोगमूलक जीवन दृष्टि का निषेध
तन्त्र की इस भोगवादी जीवनदृष्टि के प्रति जैन आचार्यों का दृष्टिकोण सदैव निषेधपरक ही रहा है। वैयक्तिक भौतिक हितों एवं वासनाओं की पूर्ति के निमित्त धन, सम्पत्ति, सन्तान आदि की प्राप्ति हेतु अथवा कामवासना की पूर्ति हेतु अथवा शत्रु के विनाश के लिए की जानेवाली साधनाओं के निर्देश तो जैन आगमों में उपलब्ध हो जाते हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि इस प्रकार की तांत्रिक साधनाएं प्राचीन काल में भी प्रचलित थीं किन्तु प्राचीन जैन आचार्यों ने इसे सदैव हेय दृष्टि से देखा था और साधक के लिए ऐसी तांत्रिक साधनाओं का सर्वथा निषेध किया था। सूत्रकृताङ्ग (२/३/१८) में चौंसठ प्रकार की विद्याओं के अध्ययन या साधना करने वालों के निर्देश तो हैं किन्तु उसमें इन विद्याओं को पापश्रुत-अध्ययन कहा गया है। मात्र यही नहीं उसमें स्पष्टरूप से यह भी कहा गया है कि जो इन विद्याओं की साधना करता है वह अनार्य है, विप्रतिपन्न है और समय आने पर मृत्यु को प्राप्त करके आसुरी और किल्विषिक योनियों को प्राप्त होता है।
पुनः उत्तराध्ययनसूत्र (१५/७) में कहा गया है कि जो छिद्रविद्या, स्वरविद्या, स्वप्नलक्षण, अंगविद्या आदि के द्वारा जीवन जीता है वह भिक्षु नहीं है। इसी प्रकार दशवैकालिकसूत्र (८/५०) में भी स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि मुनि नक्षत्रविद्या, स्वप्नविद्या, निमित्तविद्या, मन्त्रविद्या और भैषज्य शास्त्र
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