Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 15
________________ जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा १. अण्डज – अण्डों से उत्पन्न होने वाले प्राणी अण्डज कहलाते हैं । जैसे - सांप, केंचुआ, मच्छ, कबूतर, हंस, काक, आदि जंतु । मोर २. पोतज - जो जीव खुले अंग से उत्पन्न होते हैं, वे पोतज कहलाते हैं । जैसे - हाथी, नकुल, चूहा, बगुला, आदि । ३. जरायुज - जरायु एक तरह का जाल जैसा रक्त एवं मांस से लथड़ा हुआ आवरण होता है और जन्म के समय वह बच्चे के शरीर पर लिपटा हुआ रहता है। ऐसे जन्म वाले प्राणी जरायुज कहलाते हैं । जैसे - मनुष्य, गाय, भैंस, ऊंट, घोड़ा, मृग, सिंह, रींछ, कुत्ता, बिल्ली आदि । —— ४. रसज - मद्य आदि में जो कृमि उत्पन्न होते हैं, वे रसज कहलाते हैं । ५. संस्वेदज --संस्वेद में उत्पन्न होनेवाले संस्वेदज कहलाते हैं । जैसे - जूं आदि । ६. सम्मूच्छिम - किसी संयोग की प्रधानतया अपेक्षा नहीं रखते हुए यत्र कुत्र जो उत्पन्न हो जाते हैं, वे सम्मूच्छिम हैं । जैसे— चींटी मक्खी आदि । 1 ७. उद्भि- भूमि को भेदकर निकलने वाले प्राणी उद्भिद् कहलाते हैं । जैसे - टिड्डी आदि । ८. उपपातज - शय्या एवं कुम्भी में उत्पन्न होने वाले उपपातज हैं । जैसे – देवता, नारक आदि । - उत्पत्ति-स्थान सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्त्व नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते हैं और वहीं स्थिति और वृद्धि को प्राप्त करते हैं । वे शरीर से उत्पन्न होते हैं, शरीर में रहते हैं, शरीर में वृद्धि को प्राप्त करते हैं और शरीर का ही आहार करते हैं । वे कर्म अनुगामी हैं । कर्म हो उनकी उत्पत्ति, स्थिति और गति का आदि कारण है । वे कर्म के प्रभाव से ही विभिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते हैं । प्राणियों के उत्पत्ति-स्थान ८४ लाख हैं और उनके कुल एक करोड़ साढ़े सत्तानवे लाख (१,९७,५०,००० ) हैं । एक उत्पत्ति-स्थान में अनेक कुल होते हैं । जैसे गोबर एक ही योनि है और उसमें कृमि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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