Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 104
________________ - कर्मवाद १. प्रथम श्रेणी के साधकों के कर्म का भार अल्प होता है। उनका साधना-काल दीर्घ हो सकता है। पर उनके लिए कठोर तप करना आवश्यक नहीं होता और न उन्हें असह्य कष्ट सहना होता है । वे सहज जीवन बिता मुक्त हो जाते हैं। इस श्रेणी के साधकों में भरत चक्रवर्ती का नाम उल्लेखनीय २. दूसरी श्रेणी के साधकों के कर्म का भार अल्पतर होता है। उनका साधना-काल भी अल्पतर होता है। वे अत्यल्प तप और अत्यल्प कष्ट का अनुभव कर सहज भाव से मुक्त हो जाते हैं। ___ इस श्रेणी के साधकों में भगवान ऋषभ की माता मरुदेवा का नाम उल्लेखनीय हैं। ३. तीसरी श्रेणी के साधकों के कर्म-भार महान् होता है। उनका साधना-काल अल्प होता है। वे घोर तप और घोर कष्ट का अनुभव कर मुक्त होते हैं। इस श्रेणी के साधकों में वासुदेव कृष्ण के भाई गजसुकुमार का नाम उल्लेखनीय है। ४. चौथी श्रेणी के साधकों के कम-भार महत्तर होता है । उनका साधना-काल दीर्घतर होता है । वे घोर तप और कष्ट सहन कर मुक्त होते हैं। इस श्रेणी के साधकों में सनत्कुमार चक्रवर्ती का नाम उल्लेखनीय है। अनादि का अंत कैसे ? ___ जो अनादि होता है, उसका अंत नहीं होता, ऐसी दशा में अनादिकालीन कर्म-संबंध का अंत कैसे हो सकता है ? यह ठीक है, किंतु इसमें बहुत कुछ समझने जैसा है। अनादि का अंत नहीं होता, यह सामुदायिक नियम है और जाति से संबंध रखता है। व्यक्ति विशेष पर यह लागू नहीं भी होता। प्रागभाव अनादि है, फिर भी उसका अंत होता है। स्वर्ण और मृत्तिका का, घी और दूध का संबंध अनादि है, फिर भी वे पृथक् होते हैं। ऐसे ही आत्मा और कर्म के अनादि-संबंध का अंत होता है। यह ध्यान रहे कि इसका संबंध प्रवाह की अपेक्षा से अनादि है, व्यक्तिश: नहीं। आत्मा से जितने कर्म पुद्गल चिपटते हैं, वे सब अवधि-सहित होते हैं। कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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