Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 107
________________ ०८ जनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा पौद्गलिक विचार (द्रव्यलेश्या) के साथ चैतसिक विचार (भावलेश्या) का गहरा संबंध है। चैतसिक विचार के अनुरूप पोद्गलिक विचार होते हैं अथवा पौद्गलिक विचार के अनुरूप चैतसिक विचार होते हैं, यह एक जटिल प्रश्न है। इसके समाधान के लिए हमें लेश्या की उत्पत्ति पर ध्यान देना होगा। चैतसिक विचार की उत्पत्ति दो प्रकार से होती है-मोह के उदय से या उसके विलय से । औदयिक चैतसिक विचार अप्रशस्त होते हैं और विलयजनित चैतसिक विचार प्रशस्त होते हैं। कृष्ण, नील और कापोत-ये तीन अप्रशस्त तथा तेज, पद्म और शुक्ल-ये तीन प्रशस्त लेश्याएं हैं। पहली तीन लेश्याएं बुरे अध्यवसाय वाली हैं, इसलिए वे दुर्गति की हेतु हैं। उत्तरवर्ती तीन लेश्याएं भले अध्यवसाय वाली हैं, इसलिए वे सुगति की हेतु हैं। कृष्ण, नील और कापोत-ये तीन अधर्म लेश्याएं तथा तेज, पद्म और शुक्ल-ये तीन धर्म लेश्याएं हैं। निष्कर्ष यह है कि आत्मा के भले और बुरे अध्यवसाय होने का मूल कारण मोह का अभाव या भाव है। कृष्ण आदि पुद्गल द्रव्य भले-बुरे अध्यवसायों के सहकारी कारण बनते हैं। मात्र काले, नीले आदि पुद्गलों से ही आत्मा के परिणाम बुरे-भले नहीं बनते । मोह का भाव-अभाव तथा पौदगलिक विचार--- इन दोनों के कारण आत्मा के बूरे या भले परिणाम बनते हैं। जैनेतर ग्रंथों में भी कर्म की विशुद्धि या वर्ण के आधार पर जीवों की कई अवस्थाएं बतलाई गई हैं। पातंजलयोग में वर्णित कर्म की कृष्ण, शुक्ल-कृष्ण, शुक्ल और अशुक्ल-अकृष्ण--ये चार जातियां भाव-लेश्या की श्रेणी में आती हैं। सांख्यदर्शन तथा श्वेताश्वतरोपनिषद् में रज, सत्त्व और तमोगुण को लोहित, शुक्ल और कृष्ण कहा गया है। यह द्रव्यलेश्या का रूप है। रजोगुण मन को मोहरंजित करता है, इसलिए वह लोहित है। सत्त्व गुण से मन मल-रहित होता है, इसलिए वह शुक्ल है। तमोगुण ज्ञान को आवृत करता है, इसलिए वह कृष्ण है। कर्मों का संयोग और वियोग : आध्यात्मिक विकास और ह्रास इस विश्व में जो कुछ है, वह होता रहता है । 'होना' वस्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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