Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 105
________________ जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा भी एक कर्म अनादिकाल से आत्मा के साथ घुल-मिलकर नहीं रहता। आत्मा मोक्षोचित सामग्री पा अनास्रव बन जाती है, तब नये कर्मों का प्रवाह रुक जाता है, संचित कर्म तपस्या द्वारा टूट जाते हैं, आत्मा मुक्त बन जाती है। लेश्या लेश्या का अर्थ है-पुद्गल द्रव्य के संसर्ग से उत्पन्न होने वाला जीव का अध्यवसाय-परिणाम, विचार । आत्मा चेतन है, अचेतन स्वरूप से सर्वथा पृथक् है, फिर भी संसार-दशा में इसका अचेतन (पुदगल) के साथ गहरा संसर्ग रहता है. इसीलिए अचेतन द्रव्य से उत्पन्न परिणामों का जीव पर असर हुए बिना नहीं रहता। जिन पुद्गलों से जीव के विचार प्रभावित होते हैं, वे भी लेश्या कहलाते हैं। लेश्याएं पौद्गलिक हैं, इसलिए इनमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं। लेश्याओं का नामकरण पौद्गलिक लेश्याओं के रंग के आधार पर हुआ है ; जैसे—कृष्णलेश्या, नीललेश्या आदिआदि। लेश्याएं छह हैं-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या। पहली तीन लेश्याएं अप्रशस्त लेश्याएं हैं। इनके वर्ण आदि चारों गूण अशुभ होते हैं। उत्तरवर्ती तीन लेश्याओं के वर्ण आदि शुभ होते हैं, इसलिए वे प्रशस्त होती हैं। खान-पान, स्थान और बाहरी वातावरण एवं वायुमण्डल का शरीर और मन पर असर होता हैं, यह प्रायः सर्वसम्मत-सी बात हैं । 'जैसा अन्न वैसा मन' यह उक्ति निराधार नहीं है। शरीर और मन दोनों परस्परापेक्ष हैं। इनमें एक-दूसरे की क्रिया का एक-दूसरे पर असर हुए बिना नहीं रहता। 'जिस लेश्या के द्रव्य ग्रहण किये जाते हैं, उसी लेश्या का परिणाम हो जाता है'-इस सिद्धांत से उक्त विषय की पुष्टि होती हैं। व्यावहारिक जगत् में भी यही बात पाते हैं । प्राकृतिक चिकित्सा-प्रणाली में मानस-रोगी को सुधारने के लिए विभिन्न रंगों की किरणों का या विभिन्न रंगों की बोतलों के जलों का प्रयोग किया जाता है। योग-प्रणाली में पृथ्वी, जल आदि तत्त्वों के रंगों के परिवर्तन के अनुसार मानस-परिवर्तन का क्रम बतलाया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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