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कर्मवाद
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का स्वभाव है । ' नहीं होना' ऐसा जो है, वह वस्तु ही नहीं है । वस्तुएं तीन प्रकार की हैं
१. अचेतन और अमूर्त-धर्म, अधर्म, आकाश, काल । २. अचेतन और मूर्त - पुद्गल ।
३. चेतन और अमूर्त - जीव ।
पहली प्रकार की वस्तुओं का होना - परिणमन --- स्वाभाविक ही होता है और वह सतत प्रवहमान रहता है ।
पुद्गल में स्वाभाविक परिणमन के अतिरिक्त जीव-कृत प्रायोगिक परिणमन भी होता है, उसे अजीवोदय - निष्पन्न कहा जाता है । शरीर और उसके प्रयोग में परिणत पुद्गल वर्ण, गंध, रस और स्पर्श—ये अजोवोदय-निष्पन्न हैं । यह जितना दृश्य संसार है, वह सब या तो जीवत् शरीर है या जीव-मुक्त शरीर । जीव में स्वाभाविक और पुद्गलकृत प्रायोगिक परिणमन होता है ।
स्वाभाविक परिणमन अजीव और जीव दोनों में समरूप होता है। पुद्गल में जीवकृत परिवर्तन होता है, वह केवल उसके संस्थानआकार का होता है । वह चेतनाशील नहीं, इसलिए इससे उसके विकास- ह्रास, उन्नति- अवनति का क्रम नहीं बनता । पुद्गल जैविक परिवर्तन पर आत्मिक विकास - ह्रास, आरोह-पतन का क्रम अवलम्बित रहता है । इसी प्रकार उससे नानाविध अवस्थाएं और अनुभूतियां बनती हैं। वह दार्शनिक चितन का एक मौलिक विषय बन जाता है ।
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