________________
जैनदर्शन में तत्त्व - मीमांसा
1
निश्चित काल - मर्यादा से पहले शुभ योग के व्यापार से कर्म का परिपाक होकर जो निर्जरा होती है, उसे अविपाकी निर्जरा कहा जाता है । यह सहेतुक निर्जरा है । इसका हेतु शुभ प्रयत्न है । वह धर्म है । धर्म - हेतुक निर्जरा नव तत्त्वों में सातवां तत्त्व है । मोक्ष इसी का उत्कृष्ट रूप है । कर्म की पूर्ण निर्जरा (विलय) जो है, वही मोक्ष है । कर्म का अपूर्ण विलय निर्जरा है । दोनों में मात्रा भेद है, स्वरूपभेद नहीं । निर्जरा का अर्थ है - आत्मा का विकास या स्वभावोदय । अभेदोपचार की दृष्टि से स्वभावोदय के साधनों को भी निर्जरा कहा जाता है । इसके बारह प्रकार इसी दृष्टि के आधार पर किए गए हैं। इसके सकाम और अकाम- इन दो भेदों का आधार भी वही दृष्टि है । वस्तुतः सकाम और अकाम तप होता है, निर्जरा नहीं । निर्जरा आत्म-शुद्धि हैं । उसमें मात्रा का तारतम्य होता है, किंतु स्वरूप का भेद नहीं होता ।
कर्म-मुक्ति की प्रक्रिया
९४
कर्म परमाणुओं के विकर्षण के साथ-साथ दूसरे - कर्म-परमाओं का आकर्षण होता रहता है। किंतु इससे मुक्ति होने में कोई बाधा नहीं आती ।
कर्म-संबंध के प्रधान साधन दो हैं -- कषाय और योग । कषाय प्रबल होता है, तब कर्म-परमाणु आत्मा के साथ अधिक काल तक चिपके रहते हैं और तीव्र फल देते हैं । कषाय के मंद होते ही उनकी स्थिति कम और फल-शक्ति मंद हो जाती है ।
जैसे-जैसे कषाय मंद होता है वैसे-वैसे निर्जरा अधिक होती है और पुण्य का बंध शिथिल होता जाता है । वीतराग के केवल दो समय की स्थिति का बंध होता है । पहले क्षण में कर्म - परमाणु उसके साथ संबंध करते हैं, दूसरे क्षण में भोग लिए जाते हैं और तीसरे क्षण में वे उससे बिछुड़ जाते हैं ।
चौदहवीं भूमिका में मन, वाणी और शरीर की सारी प्रवृत्तियां रुक जाती हैं । वहां केवल पूर्व-संचित कर्म का निर्जरण होता है, नये कर्म का बंध नहीं होता । अबंध-दशा में आत्मा शेष कर्मों को खपा मुक्त हो जाता है ।
मुक्त होने वाले साधक एक ही श्रेणी के नहीं होते । स्थूलदष्टि से उनकी चार श्रेणियां प्रतिपादित हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org