Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 77
________________ जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा कतृत्व और फल-भोक्तृत्व एक ही शृंखला के दो सिरे हैं। कर्तत्व स्वयं का और फल-भोक्तृत्व के लिए दूसरी सत्ता का नियमन-ऐसी स्थिति नहीं बनती। फल-प्राप्ति इच्छा-नियंत्रित नहीं, किन्तु क्रिया-नियंत्रित है। हिंसा, असत्य आदि क्रिया के द्वारा कर्म-पुद्गलों का संचय कर जीव भारी बन जाते हैं। इनकी विरक्ति करने वाला जीव कर्म-पुदगलों का संचय नहीं करता, इसलिए वह भारी नहीं बनता । ___ जीव कर्म के भार से जितना अधिक भारी होता है, वह उतनी ही अधिक निम्नगति में उत्पन्न होता है और हल्का उर्ध्वगति में । गुरुकर्मा जीव इच्छा न होने पर भी अधोगति में जायेगा। कर्मपूदगलों को, उसे कहां ले जाना है, यह ज्ञान नहीं होता । कित परभव-योग्य आयुष्य कर्म-पुद्गलों का जो संग्रह हुआ होता है, वह पकते ही अपनी क्रिया प्रारम्भ कर देता है। पहले जीवन यानी वर्तमान आयुष्य के कर्म-परमाणुओं की क्रिया समाप्त होते ही अगले आयुष्य के कर्म-पुद्गल अपनी क्रिया प्रारम्भ कर देते हैं। दो आयुष्य के कर्म-पुद्गल जीव को एक साथ प्रभावित नहीं करते। वे पुद्गल जिस स्थान के उपयुक्त बने होते हैं, उसी स्थान पर जीव को घसीट ले जाते हैं। उन पुद्गलों की गति उनकी रासायनिक क्रिया (रस-बंध या अनुभाग-बंध) के अनुरूप होती है। जीव उनसे बद्ध होता है, इसलिए उसे भी वहीं जाना पड़ता है। इस प्रकार एक जन्म से दूसो जन्म में गति और आगति स्व-नियमन से ही होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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