Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 89
________________ ८० जनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा विज्ञानावरण, रसावरण, रस-विज्ञानावरण, स्पर्शावरण, स्पर्शविज्ञानावरण। २. दर्शनावरण के उदय से जीव द्रष्टव्य विषय को नहीं देखता, देखने का इच्छुक होने पर भी नहीं देखता। उसका दर्शन आच्छन्न हो जाता है। इसके अनुभाव नौ हैं-निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला, स्त्यानद्धि, चक्षु-दर्शनावरण, अचक्ष-दर्शनावरण, अवधि-दर्शनावरण, केवल-दर्शनावरण । ३. सातवेदनीय कर्म के उदय से जीव सुख की अनुभूति करता है। इसके अनुभाव आठ हैं—मनोज्ञ शब्द, मनोज्ञ रूप, मनोज्ञ गंध, मनोज्ञ रस, मनोज्ञ स्पर्श, मनःसुखता, वाक्-सुखता, काय सुखता। असातवेदनीय कर्म के उदय से जीव दुःख की अनुभूति करता है। इसके अनुभाव आठ है-अमनोज्ञ शब्द, अमनोज्ञ रूप, अमनोज्ञ रस, अमनोज्ञ गंध, अमनोज्ञ स्पर्श, मनोदुःखता, वाक्दुःखता, काय-दुःखता। ४. मोह-कर्म के उदय से जीव मिथ्यादृष्टि और चारित्रहीन बनता है । इसके अनुभाव पांच हैं-सम्यक्त्व-वेदनीय, मिथ्यात्ववेदनीय, सम्यग्-मिथ्यात्व-वेदनीय, कषाय-वेदनीय, नोकषायवेदनीय। ५. आयु-कर्म के उदय से जीव अमुक समय तक अमुक प्रकार का जीवन जीता है । इसके अनुभाव चार हैं-नैरयिकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु, देवायु। ६. शुभ नामकर्म के उदय से जीव शारीरिक और वाचिक उत्कर्ष पाता है। इसके अनुभाव चौदह हैं-इष्ट शब्द, इष्ट रूप, इष्ट गंध, इष्ट रस, इष्ट स्पर्श, इष्ट गति, इष्ट स्थिति, इष्ट लावण्य, इष्ट यश-कीर्ति, इष्ट उत्थान-कर्म-बल-वीर्य-पुरुषाकारपराक्रम, इष्ट स्वरता, कान्त स्वरता, प्रिय स्वरता, मनोज्ञ स्वरता। अशुभ नामकर्म के उदय से जीव शारीरिक और वाचिक अपकर्ष पाता है। इसके अनुभाव चौदह हैं-अनिष्ट शब्द, अनिष्ट रूप, अनिष्ट गंध, अनिष्ट रस, अनिष्ट स्पर्श, अनिष्ट गति, अनिष्ट स्थिति, अनिष्ट लावण्य, अनिष्ट यशो कीर्ति, अनिष्ट उत्थान-कर्मबल-वीर्य-पुरुषाकार-पराक्रम, अनिष्ट स्वरता, हीन स्वरता, दीन स्वरता, अमनोज्ञ स्वरता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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