Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

Previous | Next

Page 87
________________ ७८ जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा जोव ही नये कर्मों का बंध करता है। मोह-कर्म के उदय से जीव राग-द्वेष में परिणत होता है। तब वह अशुभ कर्मों का बंध करता है। __ मोह-रहित प्रवृत्ति करते समय शरीर-नाम-कर्म के उदय से जीव शुभ कर्म का बंध करता है। नये बन्धन का हेतु पूर्व-बन्धन न हो तो अबद्ध (मुक्त) जीव भी कर्म से बंधे बिना नहीं रह सकता। इस दृष्टि से यह सही है कि बंधा हुआ ही बंधता है, नये सिरे से नहीं। गौतम ने पूछा-भगवान् ! दुःखी जीव दुःख से स्पृष्ट होता है या अदुःखी जीव दुःख से स्पृष्ट होता है ? भगवान् ने कहा-गौतम ! दुःखी जीव दुःख से स्पृष्ट होता है, अदुःखी जीव दुःख से स्पृष्ट नहीं होता। दुःख का स्पर्श, पर्यादान (ग्रहण), उदीरणा, वेदना और निर्जरा दुःखी जीव करता है, अदुःखी जीव नहीं करता। गौतम ने पूछा-भगवन् ! कर्म कौन बांधता है ? संयत, असंयत अथवा संयतासंयत ? भगवान् ने कहा—गौतम ! असंयत, संयतासंयत और संयत -ये सब कर्म-बंध करते हैं। दसवें गुणस्थान तक के अधिकारी पुण्य और पाप दोनों का बंध करते हैं और ग्यारहवें से तेरहवें गुणस्थान तक के अधिकारी केवल पुण्य का बंध करते हैं। कर्म बंध कैसे ? गौतम-भगवन् ! जीव कर्म-बंध कैसे करता है ? भगवान-गौतम ! ज्ञानावरण के तीव्र उदय से दर्शनावरण का तीव्र उदय होता है । दर्शनावरण के तीव्र उदय से दर्शन-मोह का तीव्र उदय होता है। दर्शन-मोह के तीव्र उदय से मिथ्यात्य का उदय होता है। मिथ्यात्व के उदय से जीव के आठ प्रकार के कर्मों का बंध होता है। कर्म-बन्ध का मुख्य हेतु कषाय है। संक्षेप में कषाय के दो भेद ह-राग और द्वेष। विस्तार में उसके चार भेद हैं-क्रोध, मान, माया, लोभ। फल विपाक एक समय की बात है। भगवान् राजगृह के गुणशील नामक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112