Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 94
________________ कर्मवाद ८५ की आकांक्षा (निदान) पूर्वक तप तपने वाले हैं। आत्म-शुद्धि के लिए तप तपने वालों के अवांछित पुण्य का आकर्षण होता है। उनके लिए यह क्रम नहीं है । वह उन्हें बुद्धि-विनाश की ओर नहीं ले जाता। पुण्य काम्य नहीं है। योगीन्दु के शब्दों में-"वे पुण्य किस काम के जो राज्य देकर जीव को दुःख-परम्परा की ओर ढकेल दें। आत्म-दर्शन की खोज में लगा हआ व्यक्ति मर जाए, यह अच्छा है, किन्तु आत्म-दर्शन से विमुख होकर पुण्य चाहे, वह अच्छा नहीं है। आत्म-साधना के क्षेत्र में पुण्य की सीधी उपादेयता नहीं है, इस दृष्टि से पूर्ण सामंजस्य है। कुन्दकुन्दाचार्य ने शुद्ध-दृष्टि की अपेक्षा प्रतिक्रमण (आत्मालोचन), प्रायश्चित्त को पुण्य-बन्ध का हेतु होने के कारण विष कहा है। आचार्य भिक्षु ने कहा है-"पुण्य की इच्छा करने से पाप का बन्ध होता है।" आगम कहते हैं-"इहलोक, परलोक, पूजा-श्लाघा आदि के लिए धर्म मत करो, केवल आत्म-शुद्धि के लिए धर्म करो।" यही बांत वेदान्त के आचार्यों ने कही है कि मोक्षार्थी को काम्य और निषिद्ध कर्म में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए।" क्योंकि आत्म-साधक का लक्ष्य मोक्ष होता है और पुण्य संसार-भ्रमण के हेतु हैं। भगवान् महावीर ने कहा है-"पूण्य और पाप-इन दोनों के क्षय से मुक्ति मिलती है।" "जीव शुभ और अशुभ कर्मों के द्वारा संसार में परिभ्रमण करता है।" गीता भी यही कहती है.--"बुद्धिमान सुकृत और दुष्कृत दोनों छोड़ देता है।" अभयदेवसूरि ने आस्रव, बन्ध, पुण्य और आप को संसार-भ्रमण का हेतु कहा है। आचार्य भिक्षु ने इस प्रकार समझाया है-"पुण्य से भोग मिलते हैं। जो पुण्य की इच्छा करता है, वह भोगों की इच्छा करता है। भोग की इच्छा से संसार बढ़ता है।" __ इसका निगमन यह है कि अयोगी-अवस्था (पूर्ण-समाधिदशा) से पूर्व सत्प्रवृत्ति के साथ पुण्य-बन्ध अनिवार्य रूप से होता है। फिर भी पुण्य की इच्छा से कोई भी सत्प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए । प्रत्येक सत्प्रवृत्ति का लक्ष्य होना चाहिए-मोक्ष-आत्म-विकास । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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