Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 93
________________ ८४ जैनदर्शन में तत्त्व मीमांसा भोगा जाता है । गौतम ने पूछा- 'भगवन् ! किए हुए पाप कर्म भोगे बिना नहीं छूटते । क्या यह सच है ? ' भगवान् - 'हां, गौतम ! यह सच है ।' गौतम – 'कैसे, भगवन् ? ' - भगवान् - 'गोतम ! मैंने दो प्रकार के कर्म बतलाए हैंप्रदेश- कर्म और अनुभाग - कर्म । जो प्रदेश-कर्म हैं वे नियमत: ( अवश्य ही ) भोगे जाते हैं । जो अनुभाग-कर्म हैं वे अनुभाग ( विपाक) रूप में कुछ भोगे जाते हैं, कुछ नहीं भोगे जाते ।' 1 पुण्य-पाप मानसिक, वाचिक और कायिक क्रिया से आत्म-प्रदेशों में कम्पन होता है । उससे कर्म - परमाणु आत्मा की ओर खिंचते हैं। क्रिया शुभ होती है तो शुभ कर्म परमाणु और वह अशुभ होती है तो अशुभ कर्म परमाणु आत्मा से आ चिपकते हैं । शुभ कर्म परमाणु पुण्य और अशुभ कर्म परमाणु पाप कहलाते हैं । पुण्य और पाप - दोनों विजातीय तत्त्व हैं । इसलिए ये दोनों आत्मा की परतंत्रता के हेतु हैं । आचार्यों ने पुण्य कर्म को सोने और पाप कर्म की लोहे की बेड़ी से तुलना की है। I स्वतंत्रता के इच्छुक मुमुक्षु के लिए ये दोनों हेय हैं । मोक्ष का हेतु रत्नत्रयी ( सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र ) है । जो व्यक्ति इस तत्त्व को नहीं जानता, वही पुण्य को उपादेय और पाप को हेय मानता है । निश्चय - दृष्टि से ये दोनों हेय हैं । पुण्य की हेयता के बारे में जैन- परम्परा एकमत है । उसकी उपादेयता में विचार-भेद भी है । कई आचार्य उसे मोक्ष का परम्परहेतु मान क्वचित् उपादेय भी मानते हैं । कई आचार्य उसे मोक्ष का परम्पर हेतु मानते हुए भी उपादेय नहीं मानते । आचार्य कुन्दकुन्द ने पुण्य और पाप का आकर्षण करने वाली विचारधारा को पर समय माना है । योगीन्दु कहते हैं- "पुण्य से वैभव, वैभव से अहंकार, अहंकार से बुद्धि-नाश और बुद्धि-नाश से पाप होता है । इसलिए हमें वह नहीं चाहिए ।" टीकाकार के अनुसार यह क्रम उन्हीं के लिए है, जो पुण्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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