Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 97
________________ ८८ जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा आयु और भोग। ये दो प्रकार के हैं-सुखद और दुःखद। जिनका हेतु पुण्य होता है, वे सुखद और जिनका हेतु पाप होता है, वे दुःखद होते हैं। पुरुषार्थ भाग्य को बदल सकता है वर्तमान की दृष्टि से पुरुषार्थ अवन्ध्य कभी नहीं होता। अतीत की दृष्टि से उसका महत्त्व है भी और नहीं भी। वर्तमान का पुरुषार्थ अतीत के पुरुषार्थ से दुर्बल होता है तो वह अतीत के पुरुषार्थ को अन्यथा नहीं कर सकता। वर्तमान का पुरुषार्थ अतीत के पुरुषार्थ से प्रबल होता है तो वह अतीत के पुरषार्थ को अन्यथा भी कर सकता है। __ कर्म की बन्धन और उदय-ये दो ही अवस्थाएं होती तो कर्मों का बन्ध होता और वेदना के बाद वे निर्वीर्य हो आत्मा से अलग हो जाते । परिवर्तन को कोई अवकाश नहीं मिलता। कर्म की अवस्थाएं इन दो के अतिरिक्त और भी हैं १. अपवर्तन के द्वारा कर्म-स्थिति का अल्पीकरण (स्थितिघात) और रस का मन्दीकरण (रस-धात) होता है। २. उद्वर्तना के द्वारा कर्म-स्थिति का दीर्धीकरण और रस का तीव्रीकरण होता है। ३. उदीरणा के द्वारा लम्बे समय के बाद तीव्र भाव से उदय में आनेवाले कर्म तत्काल और मन्द-भाव से उदय में आ जाते हैं। ४. एक कर्म शुभ होता है और उसका विपाक भी शुभ होता है। एक कर्म शुभ होता है, उसका विपाक अशुभ होता है। एक कर्म अशुभ होता है, उसका विपाक शुभ होता है। एक कर्म अशुभ होता है और उसका विपाक भी अशुभ होता है। जो कर्म शुभ रूप में बंधता है और शुभ रूप में ही उदित होता है, वह शुभ और शुभविपाक वाला होता है। जो कर्म शुभ रूप में बंधता है और अशुभ रूप में उदित होता है, वह शुभ और अशुभ विपाक वाला होता है। जो कर्म अशुभ रूप में बंधता है और शुभ रूप में उदित होता है, वह अशुभ और शुभ-विपाक वाला होता है। जो कर्म अशुभ रूप में बन्धता है और अशुभ रूप में ही उदित होता है, वह अशुभ और अशुभ-विपाक वाला है। कर्म के बंध और उदय में जो यह अन्तर आता है, उसका कारण संक्रमण (बध्यमान कर्म में कर्मान्तर का । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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