Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 86
________________ कर्मवाद ७७ सम्बन्ध है, उसका माध्यम शरीर है। वह पुद्गल परमाणुओं का संगठित पुंज है। आत्मा और शरीर-इन दोनों के संयोग से जो सामर्थ्य पैदा होता है उसे करण-वीये या क्रियात्मक शक्ति कहा जाता है । शरीरधारी जीव में यह सतत बनी रहती है। इसके द्वारा जीव में भावात्मक या चैतन्य-प्रेरित क्रियात्मक कम्पन होता रहता है। कम्पन्न अचेतन वस्तुओं में भी होता है, किन्तु वह स्वाभाविक होता है। उनमें चैतन्य-प्रेरित कम्पन्न नहीं होता। चेतन में कम्पन का प्रेरक गूढ़ चैतन्य होता है। इसलिए इसके द्वारा विशेष स्थिति का निर्माण होता है। शरीर की आन्तरिक वगणा द्वारा निर्मित कंपन में बाहरी पौदगलिक धाराएं मिलकर आपसा क्रिया-प्रतिक्रिया द्वारा परिवर्तन करती रहती हैं। क्रियात्मक शक्ति-जनित कंपन के द्वारा आत्मा और कर्मपरमाणुओं का संयोग होता है। इस प्रक्रिया को आश्रव कहा जाता आत्मा के साथ संयुक्त कर्म-योग्य परमाणु कर्म-रूप में परिवर्तित होते हैं । इस प्रक्रिया को बंध कहा जाता है। आत्मा और कर्म-परमाणुओं का फिर वियोग होता है। इस प्रक्रिया को निर्जरा कहा जाता है। बंध आस्रव और निर्जरा के बीच की स्थिति है। आस्रव के द्वारा बाहरी पौद गलिक धाराएं शरीर में आती हैं। निर्जरा के द्वारा वे फिर शरीर के बाहर चली जाती हैं। कर्म-परमाणओं के शरीर में आने और फिर से चले जाने के बीच की दशा को संक्षेप में बंध कहा जाता है। शुभ और अशुभ परिणाम आत्मा की क्रियात्मक शक्ति के प्रवाह हैं । ये अजस्र रहते हैं। दोनों एक साथ नहीं, एक अवश्य रहता है। कर्म-शास्त्र की भाषा में शरीर-नाम-कर्म के उदय-काल में चंचलता रहती है। उसके द्वारा कर्म-परमाणुओं का आकर्षण होता है । शुभ परिणति के समय शुभ और अशुभ परिणति के समय अशुभ कर्म-परमाणुओं का आकर्षण होता है। कर्म कौन बांधता है ? अकर्म के कर्म का बंध नहीं होता। पूर्व-कर्म से बंधा हुआ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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