Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 88
________________ कर्मवाद ७९ चत्य में समवसृत थे । उस समय कालोदयी अनगार भगवान् के पास आये, वन्दना-नमस्कार कर बोले-'भगवन् ! जीवों के किए हुए पाप-कर्मों का परिपाक पापकारी होता है ?' भगवान्–'कालोदायी ! होता है।' कालोदायी-'भगवन् ! यह कैसे होता है ?' भगवान्-'कालोदायी ! जैसे कोई पुरुष मनोज्ञ, स्थालीपाकशुद्ध (परिपक्व), अठारह प्रकार के व्यंजनों से परिपूर्ण विषयुक्त भोजन करता है, वह (भोजन), आपातभद्र (खाते समय अच्छा) होता है, किन्तु ज्यों-ज्यों उसका परिणमन होता है, त्यों-त्यों उसमें दुर्गन्ध पैदा होती है-वह परिणामभद्र नहीं होता। कालोदायी ! इसी प्रकार प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य (अठारह प्रकार के पाप-कर्म) आपातभद्र और परिणाम-विरस होते हैं। कालोदायी! इस प्रकार पाप-कर्म प.प-विपाक वाले होते हैं।' कालोदायी-'भगवन् ! जीव के किए हुए कल्याण-कर्मों का परिपाक कल्याणकारी होता है ?' भगवान्-'कालोदायी ! होता है।' कालोदायी-'भगवान् यह कैसे होता है ?' भगवान्–'कालोदायी ! जैसे कोई पुरुष मनोज्ञ, स्थालीपाकशुद्ध (परिपक्व), अठारह प्रकार के व्यंजनों से परिपूर्ण, औषधमिश्रित भोजन करता है, वह आपातभद्र नहीं लगता, किन्तु ज्योंज्यों उसका परिणमन होता है, त्यों-त्यों उसमें सुरूपता, सुवर्णता और सुखानुभूति उत्पन्न होती है। वह परिणाम-भद्र होता है। कालोदायी ! इसी प्रकार प्राणातिपात-विरति यावत् मिथ्यादर्शनशल्य-विरति आपातभद्र नहीं लगतो किन्तु परिणाम-भद्र होती हैं। कालोदायी ! इस प्रकार कल्याण-कर्म कल्याण-विपाक वाले होते हैं।' कर्म के उदय से क्या होता है ? १. ज्ञानावरण के उदय से जीव ज्ञातव्य विषय को नहीं जानता, जिज्ञासु होने पर भी नहीं जानता। जानकर भी नहीं जानता-पहले जानकर फिर नहीं जानता। उसका ज्ञान आवृत हो जाता है। इसके अनुभाव दस हैं-श्रोत्रावरण, श्रोत्रविज्ञानावरण, नेत्रावरण, नेत्र-विज्ञानावरण, घ्राणावरण, घ्राण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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