Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 75
________________ जैनदर्शन में तस्व-मीमांसा तिर्यग्- इन तीन भागों में तथा जीवोत्पत्ति की अपेक्षा त्रस-नाड़ी और स्थावर-नाड़ी, इन दो भागों में विभक्त है । द्विसामयिक गति ऊर्ध्वलोक की पूर्व दिशा से अधोलोक की पश्चिम दिशा में उत्पन्न होने वाले जीव की गति एकवका द्विसामयिकी होती है। पहले समय में समश्रेणी में गमन करता हुआ जीव अधोलोक में जाता है और दूसरे समय में तिर्यग्वर्ती अपने उत्पत्ति-क्षेत्र में पहुंच जाता त्रिसामयिकी गति ऊर्ध्व दिशावर्ती अग्निकोण से अधोदिशावर्ती वायव्य कोण में उत्पन्न होने वाले जीव की गति द्विवक्रा त्रिसामयिकी होती है। पहले समय में जीव समश्रेणी गति से नीचे आता है, दूसरे समय में तिरछा चलकर पश्चिम दिशा में और तीसरे समय में तिरछा चलकर वायव्य कोण में अपने जन्म-स्थान पर पहुंच जाता है। स्थावर-नाड़ी गत अधोलोक की विदिशा के इस पार से उस पार की स्थावर-नाड़ी गत ऊर्ध्वलोक की दिशा में पैदा होने वाले जीव की 'त्रिवक्रा चतुः सामयिकी' गति होती है। एक समय अधोवर्ती विदिशा से दिशा में पहुंचने में, दूसरा समय त्रस-नाड़ी में प्रवेश करने में, तीसरा समय ऊर्ध्वगमन में और चौथा समय त्रस-नाड़ी से निकल उस पार स्थावर नाड़ी गत उत्पत्ति-स्थान तक पहुंचने में लगता है । आत्मा स्थूल शरीर के अभाव में भी सूक्ष्म शरीर द्वारा , गति करती है और मृत्यु के बाद वह दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश नहीं करती, किन्तु स्वयं उसका निर्माण करती है तथा संसारअवस्था में वह सूक्ष्म-शरीर-मुक्त कभी नहीं होती। अतएव पुनर्जन्म की प्रक्रिया में कोई बाधा नहीं आती। जन्म-व्युत्क्रम और इंद्रिय आत्मा का एक जन्म से दूसरे जन्म में उत्पन्न होना संक्रांतिकाल है। उसमें आत्मा की ज्ञानात्मक स्थिति कैसे रहती है. इस पर हमें कुछ विचार करना है । अन्तराल-गति में आत्मा के स्थूल-शरीर नहीं होता। उसके अभाव से आंख, कान, नाक आदि इंद्रियां नहीं होतीं। वैसी स्थिति में जीव का जीवत्व कैसे टिका रहे ? कम से कम एक इंद्रिय की ज्ञानमात्रा तो प्राणी के लिए अनिवार्य है। जिसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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