Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 74
________________ आत्मवाद ६५ अनुभव-युक्त है । जीवन का मोह और मृत्यु का भय पूर्वबद्ध संस्कारों का परिणाम है। यदि पूर्वजन्म में इनका अनुभव न हुआ होता तो नवोत्पन्न प्राणियों में ऐसी वृत्तियां नहीं मिलतीं। इस प्रकार भारतीय आत्मवादियों ने विविध युक्तियों से पूर्वजन्म का समर्थन किया है। पाश्चात्य दार्शनिक भी इस विषय में मौन नहीं दार्शनिक प्लेटो ने कहा है कि-"आत्मा सदा अपने लिए नयेनये वस्त्र बुनती है तथा आत्मा में एक ऐसी नैसर्गिक शक्ति है, जो ध्रुव रहेगी और अनेक बार जन्म लेगी।" दार्शनिक शोपनहार के शब्दों में पूनर्जन्म निःसंदिग्ध तत्त्व है। है। जैसे-“मैंने यह भी निवेदन किया कि जो कोई पुनर्जन्म के बारे में पहले-पहल सुनता है, उसे भी वह स्पष्ट-रूपेण प्रतीत हो जाता है।" अन्तर-काल प्राणी मरता है और जन्मता है, एक शरीर को छोड़ता है और दूसरा शरीर बनाता है। मृत्यु और जन्म के बीच का समय अन्तर-काल कहा जाता है। उसका परिमाण एक, दो, तीन या चार समय तक का है । अन्तर-काल में स्थूल शरीर-रहित आत्मा की गति होती है। उसका नाम 'अन्तराल-गति' है। वह दो प्रकार की होती है-ऋजु और वक्र । मृत्यु-स्थान से जन्म-स्थान सरल रेखा में होता है, वहां आत्मा की गति ऋजू होती है। और वह विषम रेखा में होता है, वहां गति वक्र होती है। ऋजु गति में सिर्फ एक समय लगता है। उसमें आत्मा को नया प्रयत्न नहीं करना पड़ता। क्योंकि जब वह पूर्वशरीर छोड़ता है तब उसे पूर्व-शरीर-जन्य वेग मिलता है और वह धनुष से छूटे हुए बाण की तरह सीधे ही नये जन्म-स्थान में पहुंच जाता है। वक्र गति में घुमाव करने पड़ते हैं। उनके लिए दूसरे प्रयत्नों की आवश्यकता होती है। घूमने का स्थान आते ही पूर्व-देहजनित वेग मंद पड़ जाता है और सूक्ष्म शरीर (कार्मण शरीर) द्वारा जीव नया प्रयत्न करता है। इसलिए उसमें समय-संख्या बढ़ जाती है । एक घुमाव वाली वक्रगति में दो समय, दो घुमाव वाली में तीन समय और तीन घुमाव वाली में चार समय लगते हैं । इसका तर्कसंगत कारण लोक-संस्थान है। सामान्यतः यह लोक ऊर्ध्व, अधः, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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