Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 82
________________ कर्मवाद ७३ आत्मा की प्रत्येक सूक्ष्म और स्थूल मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति के द्वारा उसका आकर्षण होता है । इसके बाद स्वीकरण (आत्मीकरण या जीव और कर्म - परमाणुओं का एकीभाव ) होता है । कर्म के हेतुओं को भाव- कर्म या 'मल' और कर्म - पुद्गलों को द्रव्य-कर्म या 'रज' कहा जाता है। इनमें निमित्त नैमित्तिक भाव है । भाव-कर्म से द्रव्य-कर्म का संग्रह और द्रव्य-कर्म के उदय से भाव - कर्म तीव्र होता है । आत्मा और कर्म का संबंध आत्मा अमूर्त है, तब उसका मूर्त कर्म से सम्बन्ध कैसे हो सकता ? यह भी कोई जटिल समस्या नहीं है । प्रायः सभी आस्तिक दर्शनों ने संसार और जीवात्मा को अनादि माना है । वह अनादिकाल से ही कर्मबद्ध और विकारी है । कर्मबद्ध आत्माएं कथंचित् मूर्त हैं अर्थात् निश्चयदृष्टि के अनुसार स्वरूपतः अमूर्त होते हुए भी वे संसारदशा में मूर्त होती हैं । जीव दो प्रकार के हैं-रूपी और अरूपी । मुक्त जीव अरूपी हैं और संसारी जीव रूपी । कर्म-मुक्त आत्मा के फिर कभी कर्म का बन्ध नहीं होता । कर्म - बद्ध आत्मा के ही कर्म बंधते हैं - उन दोनों का अपश्चानुपूर्वी ( न पहले और न पीछे ) रूप से अनादिकालीन सम्बन्ध चला आ रहा है। अमूर्त ज्ञान पर मूर्त मादक द्रव्यों का असर होता है, वह अमूर्त के साथ मूर्त का सम्बन्ध हुए बिना नहीं हो सकता । इससे जाना जाता है कि विकारी अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त का सम्बन्ध होने में कोई आपत्ति नहीं आती । बंध के हेतु कर्म-सम्बन्ध के अनुकूल आत्मा की परिणति या योग्यता ही बंध का हेतु है । बन्ध के हेतुओं का निरूपण अनेक रूपों में हुआ है । है ? ' गौतम ने पूछा - 'भगवन् ! जीव कांक्षा - मोहनीय कर्म बांधता भगवान् - 'गौतम ! बांधता है ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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