Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 80
________________ कर्मवाद घटना है । वह कर्म की उपेक्षा कर आत्मा को प्रभावित नहीं कर सकती। उसकी पहुंच कर्म-संघटना तक ही है। उससे कर्म-संघटना प्रभावित होती है, फिर उससे आत्मा। जो परिस्थिति कर्म-संस्थान को प्रभावित न कर सके, उसका आत्मा पर कोई असर नहीं होता। बाहरी परिस्थिति सामूहिक होती है। कर्म को वैयक्तिक परिस्थिति कहा जा सकता है। यही कर्म की सत्ता का स्वयंभूप्रमाण है। परिस्थिति काल, क्षेत्र, स्वाभाव, पुरुषार्थ, नियति और कर्म की सहस्थिति का नाम ही परिस्थिति है। . काल, क्षेत्र, स्वभाव, पुरुषार्थ, नियति और कर्म से ही सब कुछ होता है, यह एकांगी-दृष्टिकोण मिथ्या है।। काल, क्षेत्र, स्वभाव, पुरुषार्थ, नियति और कर्म से भी कुछ होता है, यह सापेक्ष-दष्टिकोण सत्य है। __ वर्तमान के जन-मानस में काल-मर्यादा, क्षेत्र-मर्यादा, स्वभावमर्यादा, पुरुषार्थ-मर्यादा और नियति मर्यादा का जैसा स्पष्ट विवेक अनेकांत-दर्शन है, वैसा कर्म-मर्यादा का नहीं रहा है। जो कुछ होता है, वह कर्म से ही होता है-ऐसा घोष साधारण हो गया है । यह एकांतवाद सच नहीं है। आत्म-गुण का विकास कम से नहीं होता, कर्म के विलय से होता है। परिस्थितिवाद के एकान्त आग्रह के प्रति जैन-दृष्टि यह है-रोग देश-काल की स्थिति से ही पैदा नहीं होता, किन्तु देश-काल की स्थिति से कर्म-उत्तेजना (उदीरणा) होती है और उत्तेजित कर्म-पुद्गल रोग पैदा करते हैं । इस प्रकार जितनी भी बाहरी परिस्थितियां हैं, वे सब कर्म-पुद्गलों में उत्तेजना लाती हैं । उत्तेजित कर्म :पुद्गल आत्मा में विभिन्न प्रकार के परिवर्तन लाते हैं । परिवर्तन पदार्थ का स्वभाव-सिद्ध धर्म है। वह संयोग कृत होता है तब विभाग रूप होता है और यदि दूसरे के संयोग से नहीं होता, तब उसकी परिणति स्वाभाविक हो जाती है। कर्म की पौद्गलिकता ___ अन्य दर्शन कर्म को जहां संस्कार या वासनारूप मानते हैं, वहां जैन-दर्शन उसे पौद्गलिक मानता है। जिस वस्तु का जो गुण होता है, वह उसका विघातक नहीं बनता।' आत्मा का गुण उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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