Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 42
________________ आत्मवाद दो प्रवाह : आत्मवाद और अनात्मवाद ज्ञान का अंश यत्किचित् मात्रा में प्राणी-मात्र में मिलता है। मनुष्य सर्वोत्कृष्ट प्राणी हैं। उनमें बौद्धिक विकास अधिक होता है। बुद्धि का काम है-सोचना, समझना, तत्त्व का अन्वेषण करना । उन्होंने सोचा, समझा, तत्त्व का अन्वेषण किया। उसमें से दो विचार-प्रवाह निकले-क्रियावाद और अक्रियावाद । आत्मा, कर्म, पुनर्जन्म, मोक्ष पर विश्वास करने वाले 'क्रियावादी' और इन पर विश्वास नहीं करनेवाले 'अक्रियावादी' कहलाए। क्रियावादी वर्ग ने संयमपूर्वक जीवन बिताने का, धर्माचरण करने का उपदेश दिया और अक्रियावादी वर्ग ने सुखपूर्वक जीवन बिताने को ही परमार्थ बतलाया। क्रियावादियों ने -'शारीरिक कष्टों को समभाव से सहना महाफल है,''आत्महित कष्ट सहने से सधता है'ऐसे वाक्यों की रचना की और अक्रियावादियों के मंतव्य के आधार पर-'यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्-जैसी युक्तियों का सृजन हुआ। क्रियावादी वर्ग ने कहा- 'जो रात या दिन चला जाता है, वह फिर वापस नहीं आता । अधर्म करने वाले के रात-दिन निष्फल होते हैं, धर्मनिष्ठ व्यक्ति के वे सफल होते हैं। इसलिए धर्म करने में एक क्षण भी प्रमाद मत करो, क्योंकि यह जीवन कुश के नोक पर टिकी हई हिम की बंद के समान क्षणभंगुर है। यदि इस जीवन को व्यर्थ गंवा दोगे तो फिर दीर्घकाल के बाद भी मनुष्य-जन्म मिलना बड़ा दुर्लभ है । कर्मों के विपाक बड़े निबिड़ होते हैं। अतः समझो, तुम क्यों नहीं समझते हो? ऐसा सद-विवेक बार-बार नहीं मिलता। बीती हुई रात फिर लौटकर नहीं आती और न मानव-जीवन फिर से मिलना सुलभ है। जब तक बुढ़ापा न सताए, रोग घेरा न डाले, इंद्रियां शक्ति-हीन न बनें, तब तक धर्म का आचरण कर लो। नहीं तो फिर मृत्यु के समय वैसे ही पछताना होगा, जैसे साफ-सुथरे राज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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