Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 66
________________ नात्मवाद इन पंक्तियों से यह समझा जाता है कि वैज्ञानिक जगत मन के विषय में ही नहीं, किन्तु मन के साधनभूत मस्तिष्क के बारे में भी कितना संदिग्ध है। मस्तिष्कको अतीत के प्रतिबिम्बों का वाहक और स्मृति का साधन मानकर स्वतंत्र चेतना का लोप नहीं किया जा सकता। मस्तिष्क फोटो के नेगेटिव प्लेट की भांति वर्तमान चित्रों को खींच सकता है, सुरक्षित रख सकता है, इस कल्पना के आधार पर उसे स्मृति का साधन भले ही माना जाए, किन्तु इस स्थिति में वह भविष्य की कल्पना नहीं कर सकता। उसमें केवल घटनाएं अंकित हो सकती हैं, पर उसके पीछे छिपे हुए कारण स्वतंत्र चेतनात्मक व्यक्ति का अस्तित्व माने बिना नहीं जाने जा सकते । 'यह क्यों ? यह है तो ऐसा होना चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए, यह वही है, इसका परिणाम यह होगा'-ज्ञान की इत्यादि क्रियाएं अपना स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध करती हैं। प्लेट की चित्रावली में नियमन होता है। प्रतिबिम्बित चित्र के अतिरिक्त उसमें और कुछ भी नहीं होता । यह नियम मानव-मन पर लागू नहीं होता। वह अतीत की धारणाओं के आधार पर बड़े-बड़े निष्कर्ष निकालता है, भविष्य का मार्ग निर्णीत करता है। इसलिए इस दृष्टांत की भी मानसक्रिया में संगति नहीं होती। आत्मा पर विज्ञान के प्रयोग वैज्ञानिकों ने १०२ तत्त्व माने हैं। वे सब मूर्तिमान हैं। उन्होंने जितने प्रयोग किए हैं, वे सभी मूर्त द्रव्यों पर ही किए हैं। अमूर्त तत्त्व इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का विषय नहीं बनता। उस पर प्रयोग भी नहीं किए जा सकते । आत्मा अमूर्त है, इसीलिए आज के वैज्ञानिक, भौतिक साधन-सम्पन्न होते हुए भी उसका पता नहीं लगा सके । किन्तु भौतिक साधनों से आत्मा का अस्तित्व नहीं जाना जाता तो उसका नास्तित्व भी नहीं जाना जाता। शरीर पर किए गए विविध प्रयोगों से आत्मा की स्थिति स्पष्ट नहीं होती। रूस के जीवविज्ञान के प्रसिद्ध विद्वान् पावलोफ ने एक कुत्ते का दिमाग निकल लिया। उससे वह शून्यवत् हो गया । उसकी चेष्टाएं स्तब्ध हो गई। १. पावलोफ के सिद्धांत को प्रवृत्तिवाद कहते हैं। उसका कहना है कि समस्त मानसिक क्रियाएं शारीरिक प्रवृत्ति के साथ होती हैं । मानसिक क्रिया और शारीरिक प्रवृत्ति अभिन्न ही है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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