Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 64
________________ आत्मवाद ५५ बन जाता है। इन घटनाओं के अवलोकन के बाद शरीर और मन के पारस्परिक सम्बन्ध के बारे में सन्देह का कोई अवकाश नहीं रहता। इस प्रकार अन्योन्याश्रयवादी मानसिक एवं शारीरिक सम्बन्ध के निर्णय तक पहुंच गए। दोनों शक्तियों का पृथक् अस्तित्व स्वीकार कर लिया। किन्तु उनके सामने एक उलझन अब तक भी मौजद है। दो विसदश पदार्थों के बीच कार्य-कारण का सम्बन्ध कैसे ? इसका वे अभी समाधान नहीं कर पाए हैं। दो विसदृश्य पदार्थों (अरूप और सरूप) का सम्बन्ध आत्मा और शरीर-ये विजातीय द्रव्य हैं। आत्मा चेतन और अरूप है, शरीर अचेतन और सरूप। इस दशा में दोनों का सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? इसका समाधान जैन दर्शन में किया गया है। संसारी आत्मा सूक्ष्म और स्थूल, इन दो प्रकार के शरीरों से वेष्टित रहता है । एक जन्म से दूसरे जन्म में जाने के समय स्थूल शरीर छुट जाता है, सूक्ष्म शरीर नहीं छूटता। सूक्ष्म शरीरधारी जीवों को एक के बाद दूसरे-तीसरे स्थूल शरीर का निर्माण करना पड़ता है। सूक्ष्म शरीरधारी जीव ही दूसरा शरीर धारण करते हैं, इसलिए अमूर्त जीव मूर्त शरीर में कैसे प्रवेश करते हैं-यह प्रश्न ही नहीं उठता। सूक्ष्म शरीर और आत्मा का सम्बन्ध अपश्चानुपूर्वी है। अपश्चानुपूर्वी उसे कहा जाता है, जहां पहले-पीछे का कोई विभाग नहीं होता--पौर्वापर्य नहीं निकाला जा सकता । तात्पर्य यह हआ कि उनका सम्बन्ध अनादि है। इसीलिए संसार-दशा में जीव कथञ्चित् मूर्त भी है । उनका अमूर्त रूप विदेहदशा में प्रकट होता है। यह स्थिति बनने पर फिर उनका मूर्त द्रव्य से कोई सम्बन्ध नहीं रहता। किन्तु संसार-दशा में जीव और पुद्गल का कथंचित सादृश्य होता है, इसलिए उसका सम्बन्ध होना असम्भव नहीं। 'अमूर्त के साथ मूर्त का सम्बन्ध नहीं हो सकता'-यह तर्क प्रस्तुत किया जाता है, यह उचित है। इनमें क्रिया-प्रतिक्रियात्मक संबन्ध नहीं हो सकता। विज्ञान और आत्मा बहुत से पश्चिमी वैज्ञानिक आत्मा को मन से अलग नहीं मानते। उनकी दृष्टि में मन और मस्तिष्क-क्रिया एक है। दूसरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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