Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 68
________________ आत्मवाद होता है वैसा कष्ट पृथ्वी के जीवों को स्पर्श करने से होता है। तथापि सामग्री के अभाव में वे बता नहीं सकते।' मानव प्रत्यक्ष प्रमाण का आग्रही है, इसलिए वह इस परोक्ष तथ्य को स्वीकार करने से हिचकता है। जो कुछ भी हो, इस विषय पर हमें इतना-सा स्मरण कर लेना होगा कि आत्मा अरूपी चेतन सत्ता है। वह किसी प्रकार भी चर्म-चक्ष द्वारा प्रत्यक्ष नहीं हो सकती। आज से ढाई हजार वर्ष पहले कौशाम्बी-पति राजा प्रदेशी ने अपने जीवन के नास्तिक-काल में शारीरिक अवयवों के परीक्षण द्वारा आत्म-प्रत्यक्षीकरण के अनेक प्रयोग किए, किन्तु उसका वह समूचा प्रयास विफल रहा।। आज के वैज्ञानिक भी यदि वैसी ही असम्भव चेष्टाएं करते रहेंगे तो कुछ भी तथ्य नहीं निकलेगा। इसके विपरीत यदि वे चेतना का आनुमानिक एवं स्व-संवेदनात्मक अन्वेषण करें तो इस गुत्थी को अधिक सरलता से सुलझा सकते हैं। चेतना का पूर्वरूप क्या है ? निर्जीव पदार्थ से सजीव पदार्थ की उत्पत्ति नहीं हो सकतीइस तथ्य को स्वीकार करने वाले दार्शनिक चेतना-तत्त्व को अनादिअनंत मानते हैं। दूसरी श्रेणी उन दार्शनिकों की है जो निर्जीव से सजीव पदार्थ की उत्पत्ति स्वीकार करते हैं। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक फ्रायड की धारणा भी यही है कि जीवन का आरम्भ निर्जीव पदार्थ से हआ । वैज्ञानिक जगत् में भी इस विचार की दो धाराएं हैं १. वैज्ञानिक लुई पाश्चर और टिंजल आदि निर्जीव से सजीव पदार्थ की उत्पत्ति स्वीकार नहीं करते । ___ रूसी नारी वैज्ञानिक लेपेसिनस्काया, अणु-वैज्ञानिक डॉ० डेराल्ड यूरे और उनके शिष्य स्टैनले मिलर आदि निष्प्राण सत्ता से सप्राण सत्ता की उत्पत्ति में विश्वास करते हैं। चैतन्य को अचेतन की भांति अनुत्पन्न सत्ता या नैसर्गिक सत्ता स्वीकार करने वालों को 'चेतना का पूर्वरूप क्या है ?'–यह प्रश्न उलझन में नहीं डालता । दूसरी कोटि के लोग, जो अहेतुक या आकस्मिक चैतन्योत्पादवादी हैं उन्हें यह प्रश्न झकझोर देता है। आदि-जीव किन अवस्थाओं में कब और कैसे उत्पन्न हुआ---यह रहस्य आज भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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