Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 50
________________ ४१ और शब्द को जानता हूं, इस प्रकार संकलनात्मक ज्ञान किसे होगा ? ककड़ी को चबाते समय स्पर्श, रस, गंध रूप और शब्द - इन पांचों को जान रहा हूं, ऐसा ज्ञान होता है । १३. स्मृति आत्मवाद इन्द्रियों के नष्ट हो जाने पर भी उनके द्वारा जाने हुए विषयों की स्मृति रहती है । आंख से कोई वस्तु देखी, कान से कोई बात सुनी; संयोगवश आंख फूट गई और कान का पर्दा फट गया, फिर भी दृष्टि और श्रुत की स्मृति रहती है । संकलनात्मक ज्ञान और स्मृति – ये मन के कार्य हैं । मन आत्मा के बिना चालित नहीं होता । आत्मा के अभाव में इन्द्रिय और मन - दोनों निष्क्रिय हो जाते हैं । अतः दोनों के ज्ञान का मूल स्रोत आत्मा है । १४. ज्ञेय और ज्ञाता का पृथक्त्व ज्ञेय इंद्रिय और आत्मा – ये तीनों भिन्न हैं । आत्मा ग्राहक है, इंद्रियां ग्रहण के साधन हैं और पदार्थ ग्राह्य हैं । लोहार सण्डासी से लोहपिंड को पकड़ता है । लोहपिंड ग्राह्य है, सण्डासी ग्रहण का साधन है और लोहार ग्राहक है । ये तीनों पृथक्-पृथक् हैं । लोहार न हो तो सण्डासी लोहपिण्ड को नहीं पकड़ सकती । आत्मा के चले जाने पर इन्द्रिय और मन अपने विषय को ग्रहण नहीं कर पाते । १५. पूर्व संस्कार की स्मृति आत्मा में संस्कारों का भण्डार भरा पड़ा है । उन संस्कारों की स्मृति होती रहती है । इस प्रकार भारतीय आत्मवादियों ने बहुमुखी तर्कों द्वारा आत्मा और पुनर्जन्म का समर्थन किया । आत्मा चेतनामय अरूपी सत्ता है । उपयोग ( चेतना की क्रिया ) उसका लक्षण है। ज्ञान दर्शन, सुख-दुःख आदि द्वारा यह व्यक्त होता है । वह विज्ञाता है । वह शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श नहीं है । वह लम्बा नहीं है, छोटा नहीं है, गोल नहीं है, चौकोना नहीं है, मंडलाकार नहीं है । वह हलका नहीं है, भारी नहीं है, स्त्री और पुरुष नहीं । कल्पना से उसका माप किया जाए तो वह असंख्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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