Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 48
________________ आत्मवार ३९ ४. सत् - प्रतिपक्ष जिसके प्रतिपक्ष का अस्तित्व नहीं है उसके अस्तित्व को तार्किक समर्थन नहीं मिल सकता । यदि चेतन नामक सत्ता नहीं होती तो 'न चेतन-अचेतन' - इस अचेतन सत्ता का नामकरण और ध ही नहीं होता । ५. बाधक प्रमाण का अभाव - अनात्मवादी - आत्मा नहीं है, क्योंकि उसका कोई साधक प्रमाण नहीं मिलता । आत्मवादी - आत्मा है क्योंकि उसका कोई बाधक प्रमाण नहीं मिलता । ६. सत् का निषेध जीव यदि न हो तो उसका निषेध नहीं किया जा सकता । असत् का निषेध नहीं होता । जिसका निषेध होता है, वह अस्तित्व में अवश्य होता है । निषेध चार प्रकार के हैं१. संयोग ३. सामान्य २. समवाय ४. विशेष । 'मोहन घर में नहीं है' यह संयोग प्रतिषेध है । इसका अर्थ यह नहीं कि मोहन है ही नहीं, किन्तु 'वह घर में नहीं है' - यह 'गृह-संयोग' का प्रतिषेध है । ' खरगोश के सींग नहीं होते' - यह समवाय- प्रतिषेध है । खरगोश भी होता है और सींग भी । इनका प्रतिषेध नहीं है । वहां केवल ' खरगोश के सींग' - इस समवाय का प्रतिषेध है । 'दूसरा चांद नहीं है' इसमें चन्द्र के सर्वथा अभाव का प्रतिपादन नहीं, किन्तु उसके सामान्य - मात्र का निषेध है । 'मोतो घड़ेजितने बड़े नहीं हैं' – इसमें मुक्ता का अभाव नहीं, किन्तु 'घड़े - जितने बड़े' - यह जो विशेषण है उसका प्रतिषेध है । आत्मा नहीं है, इसमें आत्मा का निषेध नहीं, किंतु उसका किसी के साथ होने वाले संयोग का निषेध है । ७. इन्द्रिय- प्रत्यक्ष का वैकल्य यदि इन्द्रिय- प्रत्यक्ष नहीं होने मात्र से आत्मा का अस्तित्व नकारा जाए तो प्रत्येक सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट (दूरस्थ ) वस्तु For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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