Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 49
________________ जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा के अस्तित्व का अस्वीकार करना होगा । इन्द्रिय-प्रत्यक्ष से मूर्त तत्त्व का ग्रहण होता है । आत्मा अमूर्त तत्त्व है, इसलिए इंद्रियां उसे नहीं जान पातीं। इससे इंद्रिय-प्रत्यक्ष का वैकल्य सिद्ध होता है, आत्मा का अनस्तित्व सिद्ध नहीं होता। ८. गुण द्वारा गुणी का ग्रहण चैतन्य गुण है और चेतन गुणी। चैतन्य प्रत्यक्ष है, चेतन प्रत्यक्ष नहीं है । परोक्ष गुणी की सत्ता प्रत्यक्ष गुण से प्रमाणित हो जाती है। भौंहारे में बैठा आदमो प्रकाश को देखकर सूर्योदय का ज्ञान कर लेता है। ९. विशेष गुण द्वारा स्वतंत्र अस्तित्व का बोध वस्तु का अस्तित्व उसके विशेष गुण द्वारा सिद्ध होता है। स्वतंत्र पदार्थ वही होता है, जिसमें ऐसा त्रिकालवर्ती गुण मिले जो किसी दूसरे पदार्थ में न मिले।। आत्मा में चैतन्य नामक विशेष गुण है। वह दूसरे किसी भी पदार्थ में प्राप्त नहीं है, इसलिए आत्मा का दूसरे सभी पदार्थों से स्वतंत्र अस्तित्व है। १०. संशय जो यह सोचता है कि 'मैं नहीं हूं' वही जीव है। अचेतन को अपने अस्तित्व के विषय में कभी संशय नहीं होता । 'यह है या नहीं' -ऐसी ईहा या विकल्प चेतन के ही होता है। सामने जो लम्बाचौड़ा पदार्थ दीख रहा है, 'वह खंभा है या आदमी' यह विकल्प सचेतन व्यक्ति के ही मन में उठता है। ११. द्रव्य की कालिकता जो पहले-पीछे नहीं है, वह मध्य में नहीं हो सकता। जीव एक स्वतंत्र द्रव्य है, वह यदि पहले न हो और पीछे भी न हो तो वर्तमान में भी नहीं हो सकता। १२ संकलनात्मकता इन्द्रियों का अपना-अपना निश्चित विषय होता है। एक इंद्रिय दूसरी इंद्रिय के विषय को नहीं जान सकती । इन्द्रियां ही ज्ञात हों, उनका प्रवर्तक आत्मा ज्ञाता न हो तो सब इन्द्रियों के विषयों का संकलनात्मक ज्ञान नहीं हो सकता। फिर मैं स्पर्श, रस, गंध, रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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