Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 44
________________ आत्मवाद क्रियावादी की अन्तर्-दृष्टि 'अपने किए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं' इस पर लगी रहती है। वह जानता है कि कर्म का फल भुगतना होगा, इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में। किन्तु उसका फल चखे बिना मुक्ति नहीं। इसलिए यथासम्भव पापकर्म से बचा जाए, यही श्रेयस् है। अन्तर्-दृष्टिवाला व्यक्ति मृत्यु के समय भी घबराता नहीं, दिव्यानन्द के साथ मृत्यु का वरण करता अक्रियावादी का दृष्टि-बिन्दु 'हत्थागया इमे कामा'-ये काम हाथ में आए हुए हैं-जैसी भावना पर टिका हुआ होता है। वह सोचता है कि इन भोग-साधनों का जितना अधिक उपभोग किया जाए, वही अच्छा है । मृत्यु के बाद कुछ होना-जाना नहीं है। इस प्रकार उसका अन्तिम लक्ष्य भौतिक सुखोपभोग ही होता है। वह कर्म-बन्ध से निरपेक्ष होकर त्रस और स्थावर जीवों की सार्थक और निरर्थक हिंसा करने में सकुचाता नहीं। वह जब कभी रोग-ग्रस्त होता है, तब अपने किए कर्मों को स्मरण कर पछताता है। परलोक से डरता भी है । अनुभव बताता है कि मर्मान्तक रोग और मृत्यु के समय बड़े-बड़े नास्तिक कांप उठते हैं। वे नास्तिकता को तिलांजलि दे आस्तिक बन जाते हैं । अन्तकाल में अक्रियावादी को यह सन्देह होने लगता है- "मैंने सुना कि नरक है ? जो दुराचारी जीवों की गति है, जहां क्रूर कर्मवाले अज्ञानी जीवों को प्रगाढ़ वेदना सहनी पड़ती है। यह कहीं सच तो नहीं है ? अगर है तो मेरी क्या दशा होगी ?" इस प्रकार वह संकल्प-विकल्प की दशा में मरता है। क्रियावाद का निरूपण यह रहा कि आत्मा के अस्तित्व में सन्देह मत करो । वह अमूर्त है, इसलिए इंद्रियग्राह्य नहीं है। वह अमूर्त है, इसलिए नित्य है। अमूर्त पदार्थ मात्र अविभागी नित्य होते हैं। आत्मा नित्य होने के उपरांत भी स्वकृत अज्ञान आदि दोषों के बन्धन में बन्धा हुआ है। वह बन्धन ही संसार (जन्म-मरण) का मूल है। अक्रियावाद का सार यह रहा कि यह लोक इतना ही है, जितना दृष्टिगोचर होता है । इस जगत् में केवल पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश-ये पांच महाभूत ही हैं। इनके समुदाय से चैतन्य या आत्मा पैदा होती है। भूतों का नाश होने पर उसका भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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