Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 23
________________ १४ जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा विकसित हैं । किंतु पूर्व-योग्यता से उत्तर योग्यता सृष्ट या विकसित हुई, ऐसा नहीं | पंचेन्द्रिय प्राणी की देह से पंचेन्द्रिय प्राणी उत्पन्न होता है । वह पंचेन्द्रिय ज्ञान का विकास पिता से न्यून या अधिक पा सकता है । पर यह नहीं हो सकता कि वह किसी चतुरिन्द्रिय से उत्पन्न हो जाए या किसी चतुरिन्द्रिय को उत्पन्न कर दे । सजातीय से उत्पन्न होना और सजातीय को उत्पन्न करना, यह गर्भज प्राणियों की निश्चित मर्यादा है । विकासवाद जाति विकास नहीं, किंतु जाति- विपर्यास मानता है । उसके अनुसार इस विश्व में कुछ विशुद्ध तप्त पदार्थ चारों ओर भरे पड़े थे, जिनकी गति और उष्णता में क्रमश: कमी होते हुए, बाद में उनमें से सर्व ग्रहों और हमारी इस पृथ्वी की भी उत्पत्ति हुई । इसी प्रकार जैसे-जैसे हमारी यह पृथ्वी ठंडी होने लगी, वैसे-वैसे इस वायु - जलादि की उत्पत्ति हुई और उसके बाद वनस्पति की उत्पत्ति हुई । उद्भिद्-राज्य हुआ । उससे जीव-राज्य हुआ । जीव-राज्य का विकासक्रम इस प्रकार माना जाता है - पहले सरीसृप हुए, फिर पक्षी, पशु, बन्दर और मनुष्य हुए । डार्विन के इस विलम्बित 'क्रम -विकास-प्रसर्पणवाद' को विख्यात प्राणी तत्त्ववेत्ता डी० ब्राइस ने सांध्य - प्रिमरोज ( इस पेड़ का थोड़ा-सा चारा हॉलैण्ड से लाया जाकर अन्य देशों की मिट्टी में लगाया गया । इससे अकस्मात् दो नयी श्रेणियों का उदय हुआ) के उदाहरण से असिद्ध ठहराकर 'प्लुतसञ्चारवाद' को मान्य ठहराया है, जिसका अर्थ है कि एक जाति से दूसरी उपजाति का जन्म आकस्मिक होता है, क्रमिक नहीं । विज्ञान का सृष्टि - क्रम असत् से सत् ( उत्पादवाद या अहेतुकवाद ) है | यह विश्व कब, क्यों और कैसे उत्पन्न हुआ, इसका आनुमानिक कल्पनाओं के अतिरिक्त कोई निश्चित प्रमाण नहीं मिलता । डार्विन ने सिर्फ शारीरिक विवर्तन के आधार पर क्रमविकास का सिद्धांत स्थिर किया । शारीरिक विवर्तन में वर्णभेद, संहनन ( अस्थि - रचना) भेद, संस्थान ( आकृति - रचना ) भेद, लम्बाई-चौड़ाई का तारतम्य, ऐसे-ऐसे और भी सूक्ष्म - स्थूल भेद हो सकते हैं । ये पहले भी हुआ करते थे और आज भी होते हैं । ये देश, काल, परिस्थिति के भेद से किसी विशेष प्रयोग के बिना भी हो सकते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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