Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 25
________________ जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा सुधार या उन्नत करना कठिन है। आनुवंशिकता के प्रभाव को इस नये आविष्कार के बाद 'जेनेटिक्स का विज्ञान' कहा गया। हमें दो श्रेणी के प्राणी दिखाई देते हैं। एक श्रेणी के गर्भज हैं, जो माता-पिता के शोणित, रज और शुक्र-बिन्दु के मेल से उत्पन्न होते हैं। दूसरी श्रेणी के सम्मूच्छिम हैं जो गर्भाधान के बिना स्व-अनुकूल सामग्री के सान्निध्य-मात्र से उत्पन्न हो जाते हैं। एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के जीव सम्मूच्छिम और तिर्यञ्च जाति के ही होते हैं। पंचेन्द्रिय जीव सम्मच्छिम और गर्भज दोनों प्रकार के होते है । इन दोनों (सम्मूच्छिम और गर्भज पंचेन्द्रिय) की दो जातियां हैं (१) तिर्यञ्च, (२) मनुष्य' । तिर्यञ्च जाति के मुख्य प्रकार तीन हैं१. जलचर-मत्स्य आदि । २. स्थलचर—गाय, भैंस आदि । (क) उरपरिसर्प--रेंगने वाले प्राणी-सांप आदि । (ख) भुजपरिसर्प-भुजा के बल पर चलने वाले प्राणीनेवला आदि। ३. खेचर-पक्षी। सम्मूच्छिम जीवों का जाति-विभाग गभ-व्युत्क्रांत जीवों के जाति-विभाग जैसा सुस्पष्ट और संबद्ध नहीं होता। आकृति-परिवर्तन और अवयवों की न्यूनाधिकता के आधार पर जाति-विकास की जो कल्पना है, वह औपचारिक है, तात्त्विक नहीं। सेव के वृक्ष की लगभग दो हजार जातियां मानी जाती हैं। भिन्न-भिन्न देशों की मिट्टी में बोया हआ बीज भिन्न-भिन्न प्रकार के पौधों के रूप में परिणत होता है। उनके फूलों और फलों में वर्ण, गंध, रस आदि का अंतर भी आ जाता है। 'कलम' के द्वारा भी वृक्षों में आकस्मिक परिवर्तन किया जाता है। इसी प्रकार तिर्यञ्च और मनुष्य के शरीर पर भी विभिन्न परिस्थतियों का प्रभाव पड़ता है। शीत-प्रधान देश में मनुष्य का रंग श्वेत होता है, उष्ण-प्रधान देश में श्याम । यह परिवर्तन मौलिक नहीं है। वैज्ञानिक प्रयोगों के १. मनुष्य के मल, मूत्र, लहू आदि अशुचि-स्थान में उत्पन्न होने वाले पंचेन्द्रिय जीव सम्मूच्छिम मनुष्य कहलाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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