Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 39
________________ जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा की भावना, इष्ट-प्रवृत्ति, अनिष्ट-निवृत्ति, आहार, भय आदि संज्ञाएं, संकुचन, प्रसरण, शब्द, पलायन, आगति, गति आदि चेष्टाएं होती हैं- ये मन के कार्य हैं । तब फिर वे असंज्ञी क्यों ? बात सही है। इष्ट-प्रवृत्ति और अनिष्ट-निवृत्ति का संज्ञान मानस-ज्ञान की परिधि का है, फिर भी वह सामान्य है-नगण्य है, इसलिए उससे कोई प्राणी संज्ञी नहीं बनता। एक कौड़ी भी धन है, पर उससे कोई धनी नहीं कहलाता। संज्ञी वही होते हैं जिनमें दीर्घकालिकी संज्ञा मिले; जो भूत, वर्तमान और भविष्य की ज्ञान-शृंखला को जोड़ सके। इन्द्रिय और मन पूर्व पंक्तियों में इंद्रिय और मन का संक्षिप्त विश्लेषण किया। उससे उन्हीं का स्वरूप स्पष्ट होता है। संज्ञी और असंज्ञी के इंद्रिय और मन का क्रम स्पष्ट नहीं होता। असंज्ञी और संजी के इंद्रिय-ज्ञान में कुछ तरतम रहता है या नहीं ? मन से उसका कुछ सम्बन्ध है या नहीं ? इसे स्पष्ट करना चाहिए । असंज्ञी के केवल इंद्रिय-ज्ञान होता है, संज्ञी के इंद्रिय और मानस दोनों ज्ञान होते हैं। इंद्रिय-ज्ञान की सीमा दोनों के लिए एक है। किसी रंग को देखकर संज्ञी और असंज्ञी चक्षु के द्वारा सिर्फ इतना ही जानेंगे कि यह रंग है। इंद्रिय-ज्ञान में भी अपार तरतम होता है। एक प्राणी चक्षु के द्वारा जिसे स्पष्ट जानता है, दूसरा उसे बहुत स्पष्ट जान सकता है। फिर भी अमुक रंग है, इससे आगे नहीं जाना जा सकता। उसे देखने के पश्चात्, ऐसा क्यों ? इससे क्या लाभ ? यह स्थायी है या अस्थायी ? कैसे बना ? आदि-आदि प्रश्न या जिज्ञासाएं मन का कार्य है। असंज्ञी के ऐसी जिज्ञासाएं नहीं होतीं। उनका सम्बन्ध अप्रत्यक्ष धर्मों से होता है। इन्द्रिय-ज्ञान में प्रत्यक्ष धर्म से एक सूत भी आगे बढ़ने की क्षमता नहीं होती। संज्ञी जीवों में इंद्रिय और मन दोनों का उपयोग होता है। मन इंद्रिय-ज्ञान का सहचारी भी होता है और उसके बाद भी इंद्रिय द्वारा जाने हुए पदार्थ की विविध अवस्थाओं को जानता है। मन का मनन या चिंतन स्वतंत्र हो सकता है, किन्तु बाह्य विषयों का पर्यालोचन इन्द्रिय द्वारा उनके ग्रहण होने के बाद ही होता है, इसलिए संज्ञी-ज्ञान में इन दोनों का गहरा संबंध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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