Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 35
________________ जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा प्राण और पर्याप्ति ___ आहार, चिंतन, जल्पन आदि सब क्रियाएं प्राण और पर्याप्ति --इन दोनों के सहयोग से होती हैं। जैसे-बोलने में प्राणी का आत्मीय प्रयत्न होता है, वह प्राण है। उस प्रयत्न के अनुसार जो शक्ति योग्य पुद्गलों का संग्रह करती है, वह भाषा-पर्याप्ति है। आहार-पर्याप्ति और आयुष्य-प्राण, शरीर-पर्याप्ति और काय-प्राण, इंद्रिय-पर्याप्ति और इंद्रिय-प्राण, श्वासोच्छवास पर्याप्ति और श्वासोच्छ्वास प्राण, भाषा-पर्याप्ति और भाषा-प्राण, मन-पर्याप्ति और मन-प्राण-ये परस्पर सापेक्ष हैं। इससे हमें यह निश्चय होता है कि प्राणियों की शरीर के माध्यम से होने वाली जितनी क्रियाएं हैं, वे सब आत्म-शक्ति और पौद्गलिक शक्ति-दोनों के पारस्परिक सहयोग से ही होती हैं। प्राण-शक्ति - प्राणी का जीवन प्राण-शक्ति पर अवलम्बित रहता है। प्राणशक्तियां दस हैं १. स्पर्शन-इंद्रिय-प्राण ६. मन-प्राण २. रसन-इंद्रिय-प्राण ७. वचन-प्राण ३. घ्राण-इंद्रिय-प्राण । ८. काय-प्राण ४. चक्षु-इंद्रिय-प्राण। ६. श्वासोच्छवास-प्राण ५. श्रोत-इंद्रिय-प्राण । १०. आयुष्य-प्राण। प्राण-शक्तियां सब जीवों में समान नहीं होतीं। फिर भी कम से कम चार तो प्रत्येक प्राणी में होती ही हैं। शरीर, श्वास-उच्छवास, आयुष्य और स्पर्शन-इंद्रिय-इन जीवन-शक्तियों में जीवन का मौलिक आधार है। प्राण-शक्ति और पर्याप्ति का कार्य-कारण सम्बन्ध है। जीवन-शक्ति को पौद्गलिक शक्ति की अपेक्षा रहती है। जन्म के पहले क्षण में प्राणी कई पौद्गलिक शक्तियों की रचना करता है। उनके द्वारा स्वयोग्य पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्जन होता है। उनकी रचना प्राणशक्ति के अनुपात पर होती है। जिस प्राणी में जितनी प्राण-शक्ति की योग्यता होती है, वह उतनी ही पर्याप्तियों का निर्माण कर सकता है। पर्याप्ति-रचना में प्राणी को अन्तरमुहूर्त का समय लगता है। यद्यपि उनकी रचना प्रथम क्षण में ही प्रारंभ हो जाती है, पर आहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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