Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 34
________________ जीवन-निर्माण आहार करते हैं। गर्भज प्राणी का प्रथम आहार रज-वीर्य के अणओं का होता है । देवता अपने-अपने स्थान के पुद्गलों का संग्रह करते हैं। इसके अनन्तर ही उत्पन्न प्राणी पौद्गलिक शक्तियों का क्रमिक निर्माण करते हैं। वे छह हैं—आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन । इन्हें पर्याप्ति कहते हैं । कम से कम चार पर्याप्तियां प्रत्येक प्राणी में होती हैं। जन्म लोक शाश्वत है। संसार अनादि है। जीव नित्य है। कर्म की बहुलता है। जन्म-मृत्यु की बहुलता है, इसलिए एक परमाण मात्र भी लोक में ऐसा स्थान नहीं, जहां जीव न जन्मा हो और न मरा हो। ___ 'ऐसी जाति, योनि, स्थान या कुल नहीं, जहां जीव अनेक बार या अनन्त बार जन्म धारण न कर चुके हों।' जब तक आत्मा कर्म-मुक्त नहीं होती, तब तक उसको जन्ममरण की परंपरा नहीं रुकती । मृत्यु के बाद जन्म निश्चित है । जन्म का अर्थ है उत्पन्न होना। सब जीवों का उत्पत्ति-क्रम एक-सा नहीं होता। अनेक जातियां हैं, अनेक योनियां हैं और अनेक कुल हैं। प्रत्येक प्राणी के उत्पत्ति-स्थान में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श का कुछ न कुछ तारतम्य होता ही है। फिर भी उत्पत्ति की प्रक्रियाएं अनेक नहीं हैं। सब प्राणी तीन प्रकार से उत्पन्न होते हैं। अतएव जन्म के तीन प्रकार बतलाए गए हैं-सम्मूर्छन, गर्भ और उपपात । जिनका उत्पत्ति स्थान नियत नहीं होता और जो गर्भ धारण नहीं करते, उन जीवों की उत्पत्ति को 'सम्मूच्र्छन' कहते हैं। चतुरिन्द्रिय तक सब जीव सम्मूर्च्छन जन्म वाले होते हैं। कई तिर्यंच पंचेन्द्रिय तथा मनुष्य के मल-मूत्र, श्लेष्म आदि चौदह स्थानों में उत्पन्न होने वाले पंचेन्द्रिय मनुष्य भी सम्मूर्छनज होते हैं। स्त्री-पुरुष के रज-वीर्य से जिनकी उत्पत्ति होती है, उनके जन्म का नाम 'गर्भ' है। अण्डज, पोतज और जरायुज पंचेन्द्रिय प्राणी गर्भज होते हैं। जिनका उत्पत्ति स्थान नियत होता है, उनका जन्म 'उपपात' कहलाता है। देव और नारक उपपात-जन्मा होते हैं । नारकों के लिए कुम्भी (छोटे मुंह की कुण्ड) और देवता के लिए शय्याएं नियत होती हैं। प्राणी सचित्त और अचित्त दोनों प्रकार के शरीर में उत्पन्न होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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