Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 22
________________ १३ विश्व : विकास और ह्रास होता है, किन्तु वह उसके विरुद्ध नहीं होता । वह (परिवर्तन) सदा आगे बढ़ता है, पीछे नहीं हटता। उससे उन्नति होती है, अवनति नहीं होती। ३. अधिक उत्पत्ति का नियम-यह जीवन-संग्राम का नियम है। अधिक होते हैं, वहां परस्पर संघर्ष होते हैं। यह अस्तित्व को बनाये रखने की लड़ाई है। ४. योग्य विजय-अस्तित्व की लडाई में जो योग्य होता है, विजय उसी के हाथ में आती है। स्वाभाविक चुनाव में योग्य को ही अवसर मिलता है। प्रकारान्तर से इसका वर्गीकरण यों भी हो सकता है१. स्वतः परिवर्तन । २. वंश-परम्परा द्वारा अगली पीढी में परिवर्तन । ३. जीवन-संघर्ष में योग्यतम का शेष रहना। इसके अनुसार पिता-माता के अजित गुण संतान में संक्रांत होते हैं। वे ही गुण वंशानुक्रम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी धीरे-धीरे उपस्थित होकर सूदीर्घ काल में सुस्पष्ट आकार धारण करके एक जाति से दूसरी अभिनव जाति उत्पन्न कर देते हैं। डाविन के मतानुसार पिता-माता के प्रत्येक अंग से सूक्ष्मकला या अवयव निकल कर शुक्र और शोणित में संचित होते हैं। शुक्र और शोणित से संतान का शरीर बनता है। अतएव पिता-माता के उपाजित गुण संतान में संक्रांत होते हैं। इसमें सत्यांश है, किन्तु वस्तुस्थित का यथार्थ चित्रण नहीं। एक संतति में स्वतः बुद्धिगम्य कारणों के बिना भी परिवर्तन होता है । उस पर माता-पिता का भी प्रभाव पड़ता है। जीवन-संग्राम में योग्यतम विजयी होता है, यह सच है, किन्तु यह अधिक सच है कि परिवर्तन की भी एक सीमा है। वह समानजातीय होता है, विजातीय नहीं। द्रव्य की सत्ता का अतिक्रम नहीं होता, मौलिक गुणों का नाश नहीं होता। विकास या नयी जाति उत्पन्न होने का अर्थ है कि स्थितियों में परिवर्तन हो, वह हो सकता है। किन्तु तिर्यञ्च, पशु, पक्षी या जल-जंतु आदि से मनुष्य-जाति की उत्पत्ति नहीं हो सकती। प्राणियों की मौलिक जातियां पांच है। वे क्रम-विकास से उत्पन्न नहीं, स्वतंत्र हैं । पांच जातियां योग्यता की दृष्टि से क्रमश: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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