Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 20
________________ वश्व : विकास और ह्रास की सचेतनता सिद्ध की गई है। वनस्पतिकाय के दो भेद हैं-साधारण और प्रत्येक । एक शरीर में अनन्त जीव होते हैं, वह साधारण-शरीरी, अनन्त-काय या पूक्ष्म-निगोद है । एक शरीर में एक ही जीव होता है, वह प्रत्येकशरीरी है। संघीय जीवन साधारण-वनस्पति का जीवन संघ-बद्ध होता है। फिर भी उनकी आत्मिक सत्ता पृथक-पृथक् रहती है। कोई भी जीव अपना अस्तित्व नहीं गंवाता। उन एक शरीरश्रयी अनन्त जीवों के सूक्ष्म शरीर तैजस और कार्मण पृथक्-पृथक होते हैं । उन पर एक-दूसरे का का प्रभाव नहीं होता। उनके साम्यवादी जीवन की परिभाषा करते हुए बताया कि- “साधारण वनस्पति का एक जीव जो कुछ आहार आदि पुद्गल-समूह का ग्रहण करता है, वह तत्शरीरस्थ शेष सभी जीवों के उपभोग में आता है और बहुत सारे जीव जिन पुद्गलों का ग्रहण करते हैं, वे एक जीव के उपभोग्य बनते हैं। उनके आहारविहार, उच्छ्वास-निश्वास, शरीर-निर्माण और मौत-ये सभी साधारण कार्य एक साथ होते हैं। साधारण जीवों का प्रत्येक शारीरिक कार्य साधारण होता है। पृथक्-शरीरी मनुष्यों के कृत्रिम संघों में ऐसी साधारणता कभी नहीं आती। साधारण जीवों का स्वाभाविक संघात्मक जीवन साम्यवाद का उत्कृष्ट उदाहरण है। जीव अमूर्त है, इसलिए वे क्षेत्र नहीं रोकते। क्षेत्र-निरोध स्थूल पोद्गलिक वस्तुएं ही करती हैं। साधारण जीवों के स्थूल शरीर पृथक्-पृथक् नहीं होते। जो जो निजी शरीर हैं, वे सूक्ष्म होते हैं, इसलिए एक सूई के अग्रभाग जितने छोटे शरीर में अनन्त जीव समा जाते हैं। सूई की नोक टिके उतने 'लक्ष्यपाक' तेल में एक लाख औषधियों की अस्तिता होती है। सब औषधियों के परमाणु उसमें मिले हए होते हैं। इससे अधिक सूक्ष्मता आज के विज्ञान में देखिए रसायनशास्त्र के पंडित कहते हैं कि आलपिन के सिरे के बराबर बर्फ के टुकड़े में १०,००,००,००,००,००,००,००,००० अणु हैं। इन उदाहरणों को देखते हुए साधारण जीवों की एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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