Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 17
________________ जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा कर लेते हैं, उन्हीं को हम देख सकते हैं, दूसरों को नहीं। पांचस्थावर के रूप में परिणत पुद्गल दृश्य हैं। इससे प्रमाणित होता है कि ये सजीव हैं। जिस प्रकार मनुष्य का शरीर उत्पत्तिकाल में सजीव ही होता है, उसी प्रकार पृथ्वी आदि के शरीर भी प्रारम्भ में सजीव हो होते हैं । जिस प्रकार स्वाभाविक अथवा प्रायोगिक मृत्यू से मनुष्य-शरीर निर्जीव या आत्मा-रहित हो जाता है, उसी प्रकार पृथ्वी आदि के शरीर भी स्वाभाविक या प्रायोगिक मृत्यु से निर्जीव बन जाते हैं। इनकी सजीवता का बोध कराने के लिए पूर्ववर्ती आचार्यों ने तुलनात्मक युक्तियां भी प्रस्तुत की हैं। जैसे १. मनुष्य-शरीर में समानजातीय मांसांकुर पैदा होते हैं। इसलिए वह सजीव है। २. अंडे का प्रवाही रस सजीव होता है। पानी भी प्रवाही है, इसलिए सजीव है । गर्भकाल के प्रारम्भ में मनुष्य तरल होता है, वैसे ही पानी तरल है, इसलिए सजीव है । मूत्र आदि तरल पदार्थ शस्त्र परिणत होते हैं, इसलिए वे निर्जीव होते हैं । ३. जुगनू का प्रकाश और मनुष्य के शरीर में ज्वरावस्था में होने वाला ताप जीव-संयोगी है। वैसे ही अग्नि का प्रकाश और ताप जीव-संयोगी है । आहार के भाव और अभाव में होनेवाली वृद्धि और हानि की अपेक्षा मनुष्य और अग्नि की समान स्थिति है। दोनों का जीवन वायु-सापेक्ष है । वायु के बिना मनुष्य नहीं जीता, वैसे अग्नि भी नहीं जीती। मनुष्य में जैसे प्राणवायु का ग्रहण और विषवायु का उत्सर्ग होता है, वैसे अग्नि में भी होता है। इसलिए वह मनुष्य की भांति सजीव है। सूर्य का प्रकाश भी जीव-संयोगी है। सूर्य 'आतप' नामकर्मोदययुक्त पृथ्वीकायिक जीवों का शरीर-पिण्ड है। ४. वायु में व्यक्त प्राणी की भांति अनियमित स्वप्रेरित गति होती है। इससे उसकी सचेतनता का अनुमान किया जा सकता है । स्थूल पुद्गल स्कंधों में अनियमित गति पर-प्रेरणा से होती है, स्वयं नहीं। ये चार जीव निकाय हैं। इनमें से प्रत्येक में असंख्य-असंख्य जीव हैं। मिट्टी का एक छोटा-सा ढेला, पानी की एक बूंद, अग्नि का एक कण, वायु का एक सूक्ष्म भाग-ये सब असंख्य जीवों के असंख्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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