Book Title: Jain Darshan me Tattva Mimansa Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 13
________________ जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा अनन्तप्रदेशी स्कंध बन जाता है, और फिर वे बिखरकर एक-एक परमाणु बन जाते हैं। पुद्गल अचेतन है, इसलिए उसका विकास या ह्रास चैतन्यप्रेरित नहीं होता। जीव के विकास या ह्रास की यह विशेषता है । उसमें चैतन्य होता है, इसलिए उसके विकास-ह्रास में बाहरी प्रेरणा के अतिरिक्त आंतरिक प्रेरणा भी होती है। ___ जीव (चैतन्य) और शरीर का लोलीभूत संश्लेष होता है, इसलिए आंतरिक प्रेरणा के दो रूप बन जाते हैं --आत्म-जनित और शरीर-जनित। आत्म-जनित आंतरिक प्रेरणा से आध्यात्मिक विकास होता है और शरीर-जनित से शारीरिक विकास ।। शरीर पांच हैं। उनमें दो सूक्ष्म हैं और तीन स्थूल । सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर का प्रेरक होता है। इसकी वर्गणाएं शुभ और अशुभ दोनों प्रकार की होती हैं। शुभ वर्गणाओं के उदय से पौद्गलिक या शारीरिक विकास होता है और अशुभ वर्गणाओं के उदय से आत्म-चेतना का ह्रास, आवरण और शारीरिक स्थिति का भी ह्रास होता है। . जैन-दृष्टि के अनुसार चेतन और अचेतन-पुद्गल संयोगात्मक सृष्टि का विकास क्रमिक ही होता है, ऐसा नहीं है। विकास और ह्रास के कारण विकास और हास का मुख्य कारण है आंतरिक प्रेरणा या आंतरिक स्थिति या आंतरिक योग्यता और सहायक कारण है बाहरी स्थिति । डार्विन का सिद्धांत बाहरी स्थिति को अनुचित महत्त्व देता है। बाहरी स्थितियां केवल आंतरिक वत्तियों को जगाती हैं, उनका नये सिरे से निर्माण नहीं करतीं। चेतन में योग्यता होती है, वही बाहरी स्थिति का सहारा पा विकसित हो जाती है। १. अतरंग योग्यता और बहिरंग अनुकूलता-कार्य उत्पन्न होता है। २. अंतरंग अयोग्यता और बहिरंग अनुकूलता–कार्य उत्पन्न नहीं होता। ३. अंतरंग योग्यता और बहिरंग प्रतिकूलता--- कार्य उत्पन्न नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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