Book Title: Jain Agam Itihas Evam Sanskriti
Author(s): Rekha Chaturvedi
Publisher: Anamika Publishers and Distributors P L

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Page 8
________________ vi• आमुख फलित किया। यह विश्व की बेमिसाल तथा अद्भुत घटना है कि महावीर ने किस प्रकार संयम-शील-तप का जीवन जीकर भारतीय संस्कृति के मूल उद्घोष को पीढ़ी-दर-पीढ़ी पवित्र तथा अक्षुण्ण ही नहीं रखा, वरन सत्य अहिंसा और विश्व बन्धुत्व की टिमटिमाती लौ को अलौकिक जिजीविषा प्रदान की। जैन मनीषियों ने विचार से पहले आचार को महत्व दिया। इस रुझान पर इतना अधिक बल दिया गया कि एक प्रयास ने तो अज्ञानवाद तक को जन्म दे दिया। तीर्थंकरों ने विशुद्ध चरित्र निर्माण के लिए कठोरतम नियम निर्धारित किए। उन्होंने तप को शारीरिक सुन्दरता की गंगोत्री माना। उन्होंने स्वयं खटकर, निचुड़कर, निर्धारित कसौटी पर खरे उतरकर अहिंसा के अत्यन्त कठिन चरम मापदण्ड सिद्ध किए। हिंसा के विविध प्रकारों की मीमांसा की। आचार्यों तथा शिक्षार्थियों के लिए भी उपयुक्त लक्षण तय किए। पुस्तकों में जीवों के आश्रय तथा उनकी सम्भावित हिंसा तथा अन्य कारणों से प्रारम्भ में निम्रन्थ परिपाटी पर अधिक बल दिया। भविष्य में यह भी शोध का विषय बन सकता है कि आरम्भ में धर्म के निर्ग्रन्थ बने रहने के बावजूद किस प्रकार सदियों तक उसके प्रारूप की विशुद्धता को भाषा-क्षेत्रकाल तथा अन्य धर्मों की बहुलता के परिप्रेक्ष्य में अक्षुण्ण रखा गया। प्रारम्भ में स्मृति पर अधिक बल था। पुस्तक-लेखन को दोष तक माना गया था। प्रेषक और ग्रहीता के बीच तथ्य-कथ्य के मूल बिन्दुओं और उनके निर्धारित सम्प्रेषण के प्रारूप की अक्षतता को पीढ़ी-दर-पीढ़ी किस प्रकार बनाए रखा जाए यह आधुनिक सूचना-विज्ञान के लिए भी अत्यन्त उपयोगी विषय है। ऐसे प्रयोग अनेक बार किए गए हैं जिनमें ग्रहीता के एक बड़े समूह की आंखों के सामने घटी हुई घटना का विवरण सभी से अलग-अलग लिया गया। इन प्रयोगों का अत्यन्त रोचक परिणाम यह मिला कि सभी वर्णित कथ्यों में अकसर अविश्वसनीय भिन्नता मिली। इन तथ्यों के आलोक में उस युग में सम्प्रेषण की विशुद्धता बनाए रखना कितना कठिन रहा होगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है। श्रुत की परम्परा को एक सतत-जीवन्त प्रवाह माना गया है। उसका उत्स सूत्र है। अल्पाक्षरों से गुंथे सूत्रों का संस्कृत रूप, उच्चारण पर विशेष बल देकर, पिता-पुत्र या गुरु-शिष्य परम्परा के माध्यम से वेदपाठियों ने सदियों तक मनोयोग से कैसे विशुद्ध बनाए रखा यह पूरे विश्व के इतिहास में भारतीय मेधा की विस्मयपूर्ण उपलब्धि रही है। यह बात अलग है कि शब्दों के इस सघन तथा संघीय वेगवान सूत्र-प्रवाह में यदा-कदा कुछ अर्थ-रूप तिरोहित भी हआ। इसके विपरीत, जैन तीर्थंकरों द्वारा निर्ग्रन्थता के युग में आचार के अर्थरूप में कालान्तर में परिवर्तन आने पर किस प्रकार साधु-सम्मेलन आयोजित किए गए तथा प्रथम वृहत पाटिलपुत्र-वाचना द्वारा स्मृति-संकलन किया यह भी अत्यन्त रोचक विषय है। इन सभी सघन संघीय प्रयासों के बावजूद, दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दो जैन-धाराओं में और महायान व हीनयान दो बुद्ध-धाराओं में पंथ विभाजन हुए, यह ऐतिहासिक तथ्य

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