________________
विद्वान भ्राता मेरेको छोड़ दूर रहनेसे मै बड़ाही दुःखी हूं" इत्यादि करुणा जनक समाचार पढ़ आपने शहर बीकानेर जाना निश्चय किया. रेलवे द्वारा खण्डवा, जबलपुर, प्रयाग दिल्ली और खुशकी रास्ता भीयाणी, विसाउ, रामगढ़, चूल आदि शहरोमें होते हुवे बीकानेर पधारे. उन्ही दिनोंमें आचार्य गच्छीय उपाश्रयमें श्री हेमचंद्र सूरिजीके सभापतित्व बाचफर में एक सभा भरीथी. आपने इस सभामें अपने मंतव्यका पूर्ण समर्थन किया, यह अपूर्व शक्ति देख सभासद और पंडित चकित होगये. आपका इस सभामें पूर्ण विजय हुआ.
सं० १९३१ से १९४८तक अठरा चौमासे आपके बीकानेरमही हुवे. सं १९३६ में लेखककी मातुश्रीने अपने पुत्रको आप गणिजी महाराजके अर्पण कर दिया. किन्तु लघु वय होनेसे लालन पालन करनेके लिये मातोश्रीने अपने समीप रक्खा और सम्वत् १९४० में पीछा सोंप दिया. सं० १९४८ के पौषमें श्रावक धूलचंद गंभीरमलजीने पाचोरा ( बनोटी ) से रेल्वे खर्च के लिये रू० १ ० ० का मानिआर्डर भेजकर वीनतीकी कि आप यहांपर पधारकर मेरा घर पावन करें, आपने बीनती मान्य की और रेल्वे द्वारा शिष्यों सहित रवाना होकर वहां पधारे. कई दिन तक वहां ठहरकर खानदेश बराडमें विचरते हुए खामगांव आये. बहुत वाँसे पीछा खामगाम आना हुआ इससे सब लोगोने संवत् १९४९ का चातुर्मास का उत्सव बड़ी धूमधामसे किया. सं० १९५० के आषाढ शुक्ल दशमीको आपके हाथसे लेखककी दीक्षा हुई पचास और एकावन का चातुर्मास आपका खामगाम मेही हुआ और बावनका चातुर्मास आकोलेमें हुआ इसी वर्षमे आप शिष्यपरिवार सहित शत्रुजय गिरनार आदि गुजरातके जैन तीर्थ करनेको पधारे और यात्रा करके पीछे ही खामगांवको लोट आये ततः पश्चात् (त्रेपन से लेकर छाछट तक १४ चातुर्मास) आजतक खामगांव मेंही हुवे हैं यद्यपि शेषकालमें आप विचारते भी थे किन्तु चातुर्मासके दिनोंमे पीछे लोटकर खामगांव आजाना हो जाता है. छपन की सालमे केसरीयानाथजी और मकसीजीकी यात्रा की ५९की साल में दो महीनोके लिये बीकानेर पधारेथे.६०की सालमे सम्मेद शिखरादि पूर्वकी