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( २० ) को होना चाहिए ! किन्तु आप तो अदेहधारी मानते हैं। जिसको संशय शत्रु ने घेरा है और संकल्प विकल्प करता है उसको जो मनुष्य सर्वज्ञ कहता है वह केवल हठबाद के सिवाय कुछ नहीं करता ! ईश्वर को सामर्थ्य दिखाकर किसी के पास से इनाम प्राप्त करना था ! यदि कहोगे कि नहीं; तो वृथाही आपके परमेश्वर ने इतना परिश्रम क्यों किया ? एफसे अनेक रूप होने में ईश्वर को क्या लाभ हुआ ? क्या सांसारिक जीवों से प्रशंसापत्र (Certificate) प्राप्त करना था ? और जो यह कहना है कि सामर्थ्य प्रकट करने के लिये जगदुत्पति की है तो यह कथन भी नितान्त असत्य है क्योंकि किसको बतलाने के लिये सामर्थ्य प्रकट किया और किसको बतलाने को सृष्टि उत्पन्न की! क्या उस समय कोई दूसरा ईश्वर का मित्रादि विद्यमान था ! जिसको बतलाने के वास्ते इतना भारी खेद उठाना पड़ा, आपलोगों का मन्तव्य तो यह है कि संपूर्ण पदार्थ ईश्वर के रचे हुए हैं, फिर सामर्थ्य बतलाने के लिए सृष्टि निर्माण की यह कथन आप का पूर्वापर विरोध से भरा है या नहीं ? ईश्वर को सामर्थ्य बतलाने की इच्छा कभी नहीं होना चाहिए अतएव यह भी आप का हेतु ठीक नहीं है।
कई महाशयों का यह भी अभिप्राय है कि ईश्वर का जगत् रूप श्रृंगार है, यह उसने अपना रूप विस्तार किया है, संसार रूप अपना मुख देख अपने ही मन में आप आनंदित होता है। इसका प्रत्युत्तर यह है कि इस कथन से तो ईश्वरवादी जी ! आप के ईश्वर ने अपना स्वयं ही स्वरूप विगाड़ लिया, क्योंकि मार्जार, बराह, अज, महिषादि, नाना प्रकार के रूप जितने हैं सभी उसीके रूप जानने चाहिए ?
कितने कहते हैं कि"एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः ।
एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत्" ॥१॥ . भावार्थ-एक ही भूतात्मा अर्थात् ईश्वर, प्राणीमात्र में पृथक पृथव्यवस्थित होता है, जैसे जलभरे पात्रों में चंद्र के प्रतिषिम्ब